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महापुराणे उत्तरपुराणम्
प्रतिपक्षाद्भवद्दृष्टिसम्भूतसुखसङ्गमात् । कुमार भीतभीतं वा मद्दुःखं सहसा गतम् ॥ ५७२ ॥ एवं देव्यां तुजा साकं निगदन्त्यां तदन्तरे । सम्प्राप्य सत्वरं यक्षो दक्षः स्नेहात्कुमारजात् ॥ ९७३ ॥ स्नानस्नग्लेपनाशेषभूषावस्वाशनादिभिः । सम्पूज्य जैनसन्दर्भवात्सल्यात्सकलान्पृथक् ॥ ५७४ ॥ अपास्य मधुरालापैस्तस्वगर्भैः सयुक्तिभिः । मदनादिकथाभिश्च शोकं मातुः सुतस्य च ॥ ५७५ ॥ जगाम सम्मुखं धान्नः स्वस्येत्यापाद्य सत्क्रियाम् । तत्सौहार्दं यदापत्सु सुहृद्भिरनुभूयते ॥ ५७६ ॥ राज्ञी चैष महापुण्यभागीत्यालोच्य तं पृथक् । कुमारमभ्यधादेवं प्रज्ञाविक्रमशालिनम् ॥ ५७७ ॥ सत्यन्धरमहाराजं तव राजपुरे गुरुम् । हत्वा राज्ये स्थितः शत्रुस्तत्काष्ठाङ्गारिकस्तव ॥ ५७८ ॥ पितृस्थानपरित्यागो न योग्यस्ते मनस्विनः । इत्यसौ च तदाकर्ण्य प्रतिपद्योदितं तया ॥ ५७९ ॥ अकालसाधनं शौर्य न फलाय प्रकल्पते । धान्यं वा सम्प्रतीक्ष्यो यः कालः कार्यस्य साधकः ॥ ५८० ॥ इति सञ्चित्य सञ्जतक्रोधोप्याच्छाद्य तं हृदि । अम्बैतत्कार्यपर्याप्तौ बलं नन्दाढ्यनायकम् ॥ ५८१ ॥ त्वामानेतुं प्रहेष्यामि तावदत्र त्वयास्यताम् । दिनानि कानिचिद्वीतशोकयेति महामतिः ॥ ५८२ ॥ तद्योग्य सर्ववस्तूनि परिवारञ्च कञ्चन । तत्सन्निधाववस्थाप्य गत्वा राजपुरं स्वयम् ॥ ५८३ ॥ प्राप्य तन्निजभृत्यादीन्पुरः प्रस्थाप्य कस्यचित् । मदागतिर्न वाच्येति प्रतिपाद्य पृथक् पृथक् ॥ ५८४ ॥ वैश्यवेषं समादाय विद्यामुद्राप्रभावतः । पुरं प्रविश्य कस्मिंश्चिदापणे समवस्थितः ॥ ५८५ ॥ तत्र तत्सन्निधानेन नानारत्नादिभाण्डकम् । अपूर्वलाभसंवृत्तं दृष्ट्वा सागरदत्तकः ॥ ५८६ ॥
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कल्याणों को प्राप्त हो' इस प्रकार सैकड़ों आशीर्वादों से उन्हें प्रसन्न कर विजया महादेवी बड़े स्नेह से इस प्रकार कहने लगी ।। ५७१ ।। कि 'हे कुमार ! तुझे देखनेसे जो मुझे सुख उत्पन्न हुआ है उसके समागम रूपी शत्रुसे ही मानो डरकर मेरा दुःख अकस्मात् भाग गया है' ।। ५७२ ।। इस प्रकार वह महादेवी पुत्रके साथ बातचीत कर रही थी कि इसी बीचमें कुमारके स्नेहसे वह चतुर यक्ष भी बड़ी शीघ्रता से वहाँ आ पहुँचा ।। ५७३ ।। उसने आकर उत्तम जैनधर्मके वात्सल्य से स्नान, माला, लेपन, समस्त आभूषण, वस्त्र तथा भोजन आदिके द्वारा सबका अलग-अलग सत्कार किया । तदनन्तर उसने युक्तियोंसे पूर्ण और तत्त्वसे भरे हुए मधुर वचनोंसे तथा प्रद्युम्न आदिकी कथाओंसे माता और पुत्र दोनोंका शोक दूर कर दिया। इस प्रकार आदर-सत्कार कर वह यक्ष अपने स्थानकी ओर चला गया सो ठीक ही है क्योंकि मित्रता वही है जिसका कि मित्र लोग आपत्तिके समय अनुभव करते हैं ।। ५७४ - ५७६ ।। इसके बाद विजयादेवीने 'यह महा पुण्यात्मा है' ऐसा विचार कर बुद्धि और बलसे सुशोभित कुमारको अलग ले जाकर इस प्रकार कहा कि 'राजपुर नगरके सत्यन्धर महाराज तेरे पिता थे उन्हें मार कर ही काष्ठाङ्गारिक राज्य पर बैठा था अतः वह तेरा शत्रु है । तू तेजस्वी है अत: तुझे पिताका स्थान छोड़ देना योग्य नहीं है'। इस प्रकार माताके कहे हुए वचन सुनकर और अच्छी तरह समझकर जीवन्धर कुमारने विचार किया कि 'समय और साधन बिना प्रकट हुई शूर-वीरता फल देनेके लिए समर्थ नहीं है अतः धान्यकी तरह उस कालकी प्रतीक्षा करनी चाहिये जो कि कार्यका साधक है' । जीवन्धर कुमारको यद्यपि क्रोध तो उत्पन्न हुआ था परन्तु उक्त विचार कर उन्होंने उसे हृदयमें ही छिपा लिया और मातासे कहा कि हे अम्ब ! यह कार्य पूरा होने पर मैं तुझे लेनेके लिए नन्दाव्यको सेनापति बनाकर सेना भेजूँगा तब तक कुछ दिन तू शोक रहित हो यहीं पर रह । ऐसा कहकर तथा उसके योग्य समस्त पदार्थ और कुछ परिवारको उसके समीप रखकर महाबुद्धिमान् जीवन्धर कुमार स्त्रयं राजपुर चले गये ।। ५७७ - ५८३ ।। राजपुर नगरके समीप जाकर उन्होंने अपने सेवक आदि सब लोगोंको अलग-अलग यह कहकर कि 'किसीसे मेरे आनेकी खबर नहीं कहना' पहले ही नगरमें भेज दिया और स्वयं विद्यामयी अँगूठीके प्रभावसे वैश्यका वेष रखकर नगरमें प्रविष्ट हो किसीकी दूकान पर ना बैठे ।। ५८४-५८५ । वहाँ उनके समीप बैठ जानेसे सागरदत्त सेठको अनेक रत्न आदिके पिटारे तथा और भी अपूर्व वस्तुओं का लाभ हुआ । यह देख उसने विचार किया कि 'निमित्तज्ञानीने जिसके लिए कहा था यह वही
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