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महापुराणे उत्तरपुराणम् तदादानदिनासशावक षोडशे दिने । चातकं घनकालो वा सजलाम्भोदमालया ॥ ५४॥ प्रसवं मधुमासो वा लतया चूतसज्ञया। पद्मिन्याऊदयो वालिं तं मात्रा समजीगमः ॥ ५४२॥ एवं विनोदैरन्यैश्च काले याते निरन्तरम् । सुखेन केनचिद् भोगनिर्वेगे सति हेतुना ॥ ५४३ ॥ राज्यभार परित्यज्य तपोभारं समुद्वहन् । जीवितान्ते तनुं त्यक्त्वा सहस्रारे सुरोऽभवः ॥ ५४४ ॥ तत्राष्टादशवाायुदिन्यभोगाभितपितः । ततश्चुत्वेह सम्भूतः शुभाशुभविपाकतः ॥ ५४५॥ चेटकेन हतो हंसः स काष्टाङ्गारिकोऽभवत् । तेनैव त्वत्पिता युद्ध हतः प्राक्तव जन्मनः ॥ ५४६ ॥ मन्दसानशिशोः पित्रोविंप्रयोगकतैनसः। फलाषोडशवर्षाणि वियोगस्तव बन्धुभिः ॥ ५४७ ॥ सह सात इत्येतद्विद्याधरनिरूपितम् । श्रुत्वा कल्याणबन्धुस्त्वं ममेत्येनमपूजयत् ॥ ५४८ ॥ तस्मादागत्य हेमाभनगरं प्राप्य सम्मदात् । कामभोगसुखं स्वैरमिष्टैरनुभवन् स्थितः ॥ ५४९ ॥ इदं प्रकतमत्रान्यत्संविधानमुदीर्यते । नन्दाब्यस्य पुरात्स्वस्मानिर्याणानन्तरे दिने ॥ ५५० ॥ गन्धर्वदत्ता सम्पृष्टा स्नेहितैर्मधुरादिभिः । वदास्माकं विवेसि त्वं कुमारौक गताविति ॥ ५५ ॥ साप्याह सुजने देशे हेमाभनगरे सुखम् । वसतस्तत्र का चिन्ता युष्माकमिति सादरम् ॥ ५५२ ।। ज्ञात्वा ताभ्यां स्थितं स्थानं ते सर्वे तदिदृक्षया । आपृच्छय स्वजनान् सर्वान् सन्तोषारोविंचिताः॥५५३॥ गच्छन्तो दण्डकारण्ये व्यश्राम्य॑स्तापसाश्रये । तापसीषु समागत्य तान् पश्यन्तीषु कौतुकात् ॥ ५५४ ॥ महादेवी च तान् दृष्टा ययं कस्मात्समागताः । गमिष्यथ क वेत्येतदपृच्छत्स्नेहनिर्भरा ॥ ५५५ ॥
यथावृत्तान्तमेवैषु कथयत्सु प्रतोषिणी । मत्पुत्रपरिवारोऽयं सहो यनामिति स्फुटम् ॥५५६॥ आपकी बहुत ही निन्दा की और जिस दिन उस बालकको पकड़वाया था उसके सोलहवें दिन, जिस प्रकार वर्षाकाल चातकको सजल मेघमालासे मिला देता है, वसन्त ऋतु फूलको आमकी लताके साथ मिला देता है और सूर्योदय भ्रमरको कमलिनीके साथ मिला देता है उसी प्रकार उसकी माताके साथ मिला दिया ॥ ५३८-१४२ ।। इस प्रकारके अन्य कितने ही विनोदोंसे जयद्रथका काल निरन्तर सुखसे बीत रहा था कि एक दिन उसे किसी कारणवश भोगोंसे वैराग्य हो गया फल-स्वरूप राज्यका भार छोड़कर उसने तपश्चरणका भार धारण कर लिया और जीवनके अन्तमें शरीर छोड़कर सहस्रार स्वर्गमें देव पर्याय प्राप्त कर ली ॥ ५४३-५४४ ॥ वहाँ वह अठारह सागरकी आयु तक दिव्य भोगोंसे सन्तुष्ट रहा । तदनन्तर वहाँसे च्युत होकर पुण्य पापके उदयसे यहाँ उत्पन्न हुआ है।५४५ ॥ जिस सेवकने हंसको मारा था वह काष्ठाङ्गारिक हुआ है और उसीने तुम्हारा जन्म होनेके पहले ही युद्ध में तुम्हारे पिताको मारा है। तुमने हंसके बच्चेको सोलह दिन तक उसके माता-पितासे जुदा रक्खा था उसी पापके फलसे तुम्हारा सोलह वर्ष तक भाई-बन्धुओंके साथ वियोग हुआ है। इस प्रकार विद्याधरकी कही कथा सुनकर जीवन्धरकुमार कहने लगे कि तू मेरा कल्याणकारी बन्ध है ऐसा क कर उन्होंने उसका खूब सरकार किया ॥५४६-५४८॥ तदनन्तर वे बड़ी प्रसन्नतासे सबके साथ हेमाभ नगर आय और इष्ट जनोंके साथ इच्छानुसार कामभोगका सुख भोगते हुए रहने लगे ॥५४॥
सुधर्माचार्य राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक ! यह तुमे प्रकृत बात बतलाई । अब इसीसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा कही जाती है। जिस दिन नन्दाय राजपुर नगरसे निकल गया उसके दूसरे ही दिन मधुर आदि मित्रोंने गन्धर्वदत्तासे पूछा कि दोनों कुमार कहाँ गये हैं ? तू सब जानती है, बतला। इसके उत्तरमें गन्धर्वदत्ताने बड़े आदरसे कहा कि आप लोग उनकी चिन्ता क्यों करते हैं वे दोनों भाई सुजन देशके हेमाभ नगरमें सुखसे रहते हैं ॥५५०-५५२ ॥ इस प्रकार गन्धर्वदत्ता से उनके रहनेका स्थान जानकर मधुर आदि सब मित्रोंको उनके देखनेकी इच्छा हुई और वे सब अपने आत्मीय जनों से पूछकर तथा उनसे विदा लेकर सन्तोषके साथ चल पड़े ॥५५३ ॥ चलतेचलते उन्होंने दण्डक वनमें पहुंचकर तपस्वियोंके आश्रममें विश्राम किया । कौतुकवश वहाँकी तापसी स्त्रियाँ आकर उन्हें देखने लगीं। उन स्त्रियोंमें महादेवी विजया भी थी, वह उन सबको देखकर कहने लगी कि आप लोग कौन हैं ? कहाँसे आये हैं ? और कहाँ जावेंगे ? विजयाने यह सब बड़े स्नेहके साथ पूछा ॥ ५५४-५५५ ॥ जब मधुर आदिने अपना सब वृत्तान्त कहा तब वह, यह स्पष्ट
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