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पञ्चसप्ततितम पर्व
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विज्ञायाद्यान्न विश्रम्य भवनिर्गम्यतां पुनः। समागमनकालेऽसाविहैवानीयतामिति ॥ ५५७ ।। सम्यकप्रार्थयतैतांस्तेऽप्येषा जीवन्धरश्रुतेः । रूपेण निर्विशेषा किं तन्मातेत्याससंशयाः ॥ ५५८ ॥ कुर्मस्तथेति सन्तोष्य तां प्रियानुगतोक्तिभिः । गत्वा ततोऽन्तरं किञ्चित्तत्र व्याधैः कदर्थिताः ॥ ५५९ ॥ युद्ध पुरुषकारेण ऋज्यादानभिभूय तान् । यान्तो यहच्छया व्याधैर्मार्गेऽन्यैर्योगमागमन् ॥ ५६० ॥ हेमाभपुरसापहरणारम्भसम्धमे । तत्कर्म नागरैरूर्वन्यस्तहस्तैनिवेदितः ॥ ५६१ ॥ आक्रोशद्धिः सकारुण्यो जीवन्धरसमाह्वयः । गत्वा व्याधबलं युद्ध निरुध्यातकर्यविक्रमः ॥ ५६२॥ तद्गृहीतं धनं सर्व वणिग्भ्यो झार्पयत्पुनः । युद्ध्वा चिरं विमुकात्मनामाङ्कशरदर्शनात् ॥ ५६३ ।। जीवन्धरकुमारेण विदिता मधुरादयः । सङ्गतास्ते कुमारस्य वार्ता राजपुरोद्भवाम् ॥ ५६४ ॥ सर्दा निर्वये विश्रम्य कञ्चित्कालं स्थिताः सुखम् । ततः कुमारमादाय गच्छन्तः स्वपुरं प्रति ॥५६५॥ अरण्यमप्रयाणार्थ दण्डकाख्यमुपागमन् । तत्र सेहान्महादेवी क्षीरापूर्णोन्नतस्तनी ॥ ५६६ ॥ बाष्पाविलविलालाक्षी क्षामक्षामाङ्गयष्टिका । चिन्तासहस्रसन्तप्सजटीभूतशिरोरुहा ॥ ५६७ ॥ निरन्तरोष्णनिःश्वासवैवयंगमिताधरा । ताम्बूलादिव्यपायोरुमलदिग्धद्विजावली ॥ ५६०॥ अशोचत्पुत्रमालोक्य रुक्मिणीव मनोभवम् । इष्टकालान्तरालोकस्तत्क्षणे दुःखकारणम् ॥ ५६ ॥ तनूजस्पर्शसम्भूतमस्पृशन्ती सुखामृतम् । 'ज्ञापयित्वा पतत्पादपप्रयोः सकताञ्जलिः ॥ ५७० ॥ कुमारोशिष्ठ कल्याणशतभागी भवेत्यसौ। तमाशिषां शतैः स्रहादभिनन्द्याब्रवीदिति ॥ ५७१ ॥
जानकर बहुत ही सन्तुष्ट हुई कि यह युवाओंका सङ्घ मेरे ही पुत्रका परिवार है । उसने फिर कहा कि आज आप लोग यहाँ विश्राम कर जाइये और आते समय उसे यहाँ ही लाइये ॥ ५५६-५५७ ।। इस प्रकार उसने उन लोगोंसे अच्छी तरह प्रार्थना की। वह देवी रूपकी अपेक्षा जीवन्धरके समान ही थी इसलिए सबको संशय हो गया कि शायद यह जीवन्धरकी माता ही हो। तदनन्तर उन लोगोंने प्रिय और अनुकूल वचनोंके द्वारा उस देवीको सन्तुष्ट किया और कहा कि हमलोग ऐसा ही करेंगे। इसके बाद वे आगे चले, कुछ ही दूर जाने पर उन्हें भीलोंने दुःखी किया परन्तु वे अपने पुरुषार्थसे युद्ध में भीलोंको हराकर इच्छानुसार आगे बढ़े। आगे चलकर मार्गमें ये सब लोग दूसरे भीलोंके साथ मिल गये और सबने हेमाभ नगरमें जाकर वहाँके सेठोंको लूटना शुरू किया। इससे क्षुभित हुए नगरवासी लोगोंने हाथ ऊपर कर तथा जोर-जोरसे चिल्लाकर जीवन्धर कुमारको इस कार्यकी सूचना दी। निदान, अचिन्त्य पराक्रमके धारक दयालु जीवन्धर कुमारने जाकर युद्ध में वह भीलोंकी सेना रोकी और उनके द्वारा हरण किया हुआ सब धन छीनकर वैश्योंके लिए वापिस दिया। इधर मधुर आदिने चिरकाल तक युद्ध कर अपने नामसे चिह्नित बाण देखकर जीवन्धर कुमारने उन सबको पहिचान लिया। तदनन्तर उन सबका जीवन्धर कुमारसे मिलाप हो गया और सब लोग कुमारके लिए राजपुर नगरकी सब कथा सुनाकर वहाँ कुछ काल तक सुखसे रहे। इसके बाद वे कुमारको लेकर अपने नगरकी ओर चले। विश्राम करनेके लिए वे उसी दण्डक वनमें आये। वहाँ उन्हें महादेवी विजया मिली, स्नेहके कारण उसके स्तन दूधसे भरकर ऊँचे उठ रहे थे, नेत्र आँसुओंसे व्याप्त होकर मलिन हो रहे थे, शरीर-यष्टि अत्यन्त कृश थी, वह हजारों चिन्ताओंसे सन्तप्त थी, उसके शिरके बाल जटा रूप हो गये थे, निरन्तर गरम श्वास निकलनेसे उसके अोठोंका रङ्ग बदल गया था और पान आदिके न खानेसे उसके दाँतों पर बहुत भारी मैल जमा हो गया था। जिस प्रकार रुक्मिणी प्रद्युम्नको देखकर दुखी हुई थी उसी प्रकार विजया महादेवी भी पुत्रको देखकर शोक करने लगी सो ठीक ही है क्योंकि इष्ट पदार्थका बहुत समय बाद देखना तत्कालमें दुःखका कारण होता ही है ।। ५५८-५६६ ॥ पुत्रके स्पर्शसे उत्पन्न हुए
सुख रूपी अमृतका जिसने स्पर्श नहीं किया है ऐसी माताको उस सुखका अनुभव कराते हुए ' जीवन्धर कुमार हाथ जोड़कर उसके चरण-कमलोंमें गिर पड़े ॥५७० ॥ हे कुमार ! उठ, सैकड़ों
१निवेदितम् म०, ख.।२शापयन् वा ल.।
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