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पचसप्ततितमं पर्व
इदं सरस्वया केन रक्ष्यते हेतुनेति सः । परिपृष्टः कुमारेण खेचरः सम्यगग्रवीत् ॥ ५२६ ॥ शृणु भद्र प्रवक्ष्यामि मत्कथां कृतचेतनः । अभवत्पुष्पदन्ताख्यमालाकारधनेशिनः ॥ ५२७ ॥ सुतो राजपुरे जातिभटाह्नः कुसुमश्रियः । तत्रैव धनदशस्य नन्दिन्यां तनयोऽभवत् ॥ ५२८ ॥ चन्द्राभो मे सखा तस्य कदाचिद्धर्ममभ्यधात् । भवानहञ्च धर्मेण तेन रक्ताशयस्तदा ॥ ५२९॥ विधाय मद्यमांसादिनिवृत्तिं तत्फलान्मृतः । इह विद्याधरो भूत्वा सिद्धकूटजिनालये ॥ ५३० ॥ विलोक्य चारणद्वन्द्वं विनयेनोपसृत्य तत् । आवयोर्भवसम्बन्धमाकर्ण्य त्वां निरीक्षितुम् ॥ ५३१ ॥ रक्षित्वेतत्सरोऽन्येषां प्रवेशाद्विद्यया स्थितः । वक्ष्ये त्वद्भवसम्बन्धं दिव्यावधिनिरूपितम् ॥ ५३२ ॥ भातकीखण्डप्राग्भागमेरुपूर्वविदेहगे । विषये पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरीकिणी ॥ ५३३ ॥ पतिर्जयन्धरस्तस्य तनूजोऽभूज्जयद्रथः । 'जयवत्यास्त्वमन्येद्यर्वनं नाम्ना मनोहरम् ॥ ५३४ ॥ विहतु प्रस्थितस्तस्य सरस्यां हंसशावकम् । विलोक्य चेटकैर्दक्षैस्तमानाय्य सकौतुकः ॥ ५३५ ॥ स्थितस्तत्पोषणोद्योगे तन्मातापितरौ तदा । सशोकौ करुणाक्रन्दं नभस्य कुरुतां मुहुः ॥ ५३६ ॥ चेटकस्ते तदाकर्ण्य कर्णान्ताकष्टचापकः । शरेणापायातं तस्याकार्य न पापिनाम् ॥। ५३७ ॥ निरीक्ष्य भवन्माता कारुण्याद्रीकृताशया । किमेतदिति सम्पृच्छ्य प्रबुद्धा परिचारकात् ॥ ५३८ ॥ कुपित्वा चटकायैनं वृथा विद्धुवते सती । निर्भत्स्ये त्वाञ्च ते पुत्र न युक्तमिदमाश्विमम् ॥ ५३९ ॥ मात्रा संयोजयेत्याह स्वञ्चाज्ञानादिदं मया । कृतं कर्मेति निन्दित्वा गर्हित्वात्मानमार्द्रधीः ॥ ५४० ॥
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लाकर खड़ा कर दिया ।। ५२५ ।। तब जीवन्धर कुमारने उससे पूछा कि तू इस सरांवरकी रक्षा किसलिए करता है ? इस प्रकार कुमारके पूछने पर वह विद्याधर अच्छी तरह कहने लगा कि हे भद्र ! मेरी कथाको चित्त लगाकर सुनिये, कहता हूँ । पहले जन्म में मैं राजपुर नगरमें अत्यन्त धनी पुष्पदन्त मालाकारकी स्त्री कुसुमश्रीका जातिभट नामका पुत्र था उसी नगर में धनदत्तकी स्त्री नन्दिनीसे उत्पन्न हुआ चन्द्राभ नामका पुत्र था। वह मेरा मित्र था, किसी एक समय आपने उस चन्द्राभके लिए धर्मका स्वरूप कहा था उसे सुनकर मेरे हृदय में भी धर्मप्रेम उत्पन्न हो गया ।। ५२६५२६ ॥ और मैंने उसी समय मद्य-मांस आदिका त्याग कर दिया उसके फलसे मरकर मैं यह विद्याधर हुआ । किसी समय मैंने सिद्धकूट जिनालय में दो चारण मुनियोंके दर्शन किये। मैं बड़ी विनयसे उनके पास पहुँचा और उनके समीप अपने तथा आपके पूर्वभवका सम्बन्ध सुनकर आपके दर्शन करनेके लिए ही अन्य लोगोंके प्रवेशसे इस सरोवरकी रक्षा करता हुआ यहाँ रहता हूँ । उन मुनिराजने अपने दिव्य अवधिज्ञानसे देखकर जो आपके पूर्वभवका सम्बन्ध बतलाया था उसे अब मैं कहता हूँ ।। ५३०-५३२ ।।
धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामका देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में राजा जयंधर राज्य करता था। उसकी जयवती रानीसे तू जयद्रथ नामका पुत्र हुआ था। किसी एक समय वह जयद्रथ क्रीड़ा करनेके लिए मनोहर नामके वनमें गया था वहाँ उसने सरोवर के किनारे एक हंसका बच्चा देखकर कौतुक वश चतुर सेवकोंके द्वारा उसे बुला लिया और उसके पालन करनेका उद्योग करने लगा। यह देख, उस बच्चेके माता-पिता शोक सहित होकर आकाशमें बार-बार करुण क्रन्दन करने लगे । उसका शब्द सुनकर तेरे एक सेवकने कान तक धनुष खींचा और एक बाणसे उस बच्चे के पिताको नीचे गिरा दिया सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्योंको नहीं करने योग्य कार्य क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।। ५३३-५३७ ॥ यह देख जयद्रथकी माताका हृदय दयासे आर्द्र हो गया और उसने पूछा कि यह क्या है ? सेवकसे सब हाल जानकर वह सती व्यर्थ ही पक्षी पिताको मारनेवाले सेवक पर बहुत कुपित हुई तथा तुझे भी डाँटकर कहने लगी कि हे पुत्र ! तेरे लिए यह कार्य उचित नहीं है, तू शीघ्र ही इसे इ की मातासे मिला दे । इसके उत्तरमें तूने कहा कि यह कार्य मैंने अज्ञान वश किया है। इस प्रकार आर्द्र परिणाम होकर अपने
१ जयवत्यां त्वमन्येद्यु-ल० ।
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