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महापुराणे उत्तरपुराणम् सत्रैकं चारणं वीक्ष्य सहसा महसां निधिम् । भिक्षाहेतोर्यतिं प्राप्तमभ्युत्थाय यथोचितम् ॥ ५११॥ कृताभिवन्दनो योग्यं भाक्तिकोऽदात्सुभोजनम् । तद्दानावर्जितायोऽयमयादाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ५१२॥ तहानफलमालोक्य वनराजः स्वजन्मनः । सम्बन्धं यद्यथावृतं स तत्सर्वमवागमत् ॥ ५१३॥ बलेन महता योद्धहरिविक्रममागतम् । यक्षस्तञ्च समादाय कुमारस्य करेऽकरोत् ॥ ५१५॥ वनराजस्तदाशेषं सर्वेषामित्यथाब्रवीत् । जन्मनीतस्तृतीयेहं बभूव वणिजां 'सुतः ॥५१५॥ सुवर्णतेजास्तस्माच मृत्वा मार्जार तांगतः । कपोती प्राग्भवे कन्यामिमां हन्तुं समुद्यतः ॥ ५१६ ॥ केनचिन्मुनिनाधीतचतुर्गतिगतश्रुतेः । मुक्तवैरोऽत्र भूत्वैतत्स्नेहादेनामनीनयम् ॥ ५१७ ॥ तदुक्त ते समाकर्ण्य नायं कन्यामनीनयत् । दर्पण किन्तु सम्प्रीत्ये त्यवधार्य शमङ्गता ॥ ५१८॥ पितरं वनराजस्य तञ्च निर्मुकबन्धनम् । करवा विसर्जयाश्चक्रर्धार्मिकत्वं हि तस्सताम् ॥ ५१९॥ ततो राज्ञः पुरं गत्वा स्थित्वा द्वित्रिदिनानि ते । गत्वा नगरशोभाख्ये श्रीचन्द्रां बन्धभागिनीम् ॥५२०॥ नन्दाब्याय ददुर्भूरिभत्या यूने धनेशिने । एवं विवाहनिर्वृत्तौ हेमा बन्धुभिः समम् ॥ ५२१ ॥ पुरं प्रत्यागमे सत्यन्धरसूनुं निवेश्य तम् । कस्यचित्सरसस्तीरे तत्रानेतुं जलं गताः ॥ ५२२ ॥ परिवारजना दष्टा दुष्टैर्गन्धिलमाक्षिकैः । तनयाद्बोधयन्ति स्म जीवन्धरकुमारकम् ॥ ५२३ ॥ सदाकर्ण्य विचिन्त्यैतत्कुमारोऽपि सविस्मयः । हेतुरस्त्यत्र कोऽपीति तज्ज्ञातुं यक्षमस्मरत् ॥ ५२४ ॥ सोऽपि सन्निहितस्तत्र विद्यां विध्वस्य खेचरीम् । तं खेचर कुमारस्य पुरस्तादकरोद्वतम् ॥ ५२५ ॥
गये ॥५०८-५१०।। वहीं उन्होंने तेजके निधि स्वरूप एक चारण मुनिराजके अकस्मात् दर्शन किये. वे मुनिराज भिक्षाके लिए आ रहे थे इसलिए जीवन्धर कुमारने उठकर उन्हें योग्य रीतिसे नमस्कार कया और बड़ी भक्तिसे यथायोग्य उत्तम आहार दिया। इस दानके फलसे उन्हें भारी पुण्यबन्ध हुआ और उसीसे उन्होंने पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ ५११-५१२ ।। उस दानका फल देखकर वनराजको अपने पूर्व जन्मका सब वृत्तान्त ज्योंका त्यों याद आ गया ।। ५१३ ॥ उधर हरिविक्रम अपने पुत्र वनराजको कैद हुआ सुनकर बड़ी भारी सेनाके साथ युद्ध करनेके लिए आ रहा था सो यक्षने उसे भी पकड़कर जीवन्धर कुमारके हाथमें दे दिया ॥ ५१४ ॥ तदनन्तर वनराजने सबके सामने अपना समस्त वृत्तान्त इस प्रकार निवेदन किया कि 'मैं इस जन्मसे तीसरे जन्ममें सुवर्णतेज नामका वैश्यपुत्र था। वहाँ से मरकर बिलाव हुआ। उस समय इस श्रीचन्द्राका जीव कबूतरी था इसलिए इसे मारनेका मैंने उद्यम किया था। किसी समय एक मुनिराज चारों गतियोंके भ्रमणका पाठ कर रहे थे उसे सुनकर मैंने सब वैर छोड़ दिया और मरकर यह वनराज हुआ हूं। पूर्व भवके स्नेहसे ही मैंने इस श्रीचन्द्राका हरण किया था ॥५१५-५१७ ।। वनराजका कहा सुनकर सब लोगोंने निश्चय किया कि इसने अहंकारसे कन्याका अपहरण नहीं किया है किन्तु पूर्वभवके स्नेहसे किया है ऐसा सोचकर सब शान्त रह गये।। ५१८ ।। और वनराज तथा उसके पिताको बन्धनरहित कर छोड़ दिया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंका धार्मिकपना यही है ।। ५१६ ।। इसके बाद वे सब लोग राजाके नगर ( हेमाभनगर ) में गये वहाँ दो तीन दिन ठहरकर फिर नगरशोभा नामक नगरमें गये। वहाँ कल्याणरूप भाग्यको धारण करनेवाली श्रीचन्द्रा बड़ी विभूतिके साथ धनके स्वामी युवक नन्दाव्यको प्रदान की। इस प्रकार विवाहकी विधि समाप्त होनेपर भाई-बन्धुओंके साथ फिर सब लोग हेमाभनगरको लौटे। मार्गमें किसी सरोवरके किनारे ठहरे । वहाँपर परिवारके लोग जीवन्धर कुमारको बैठाकर उस सरोवरमें जल लेनेके लिए गये। वहाँ जाते ही मधु-मक्खियोंने उन लोगोंको काट खाया तब उन लोगोंने उनके भयसे लौटकर इसकी खबर जीवन्धर कुमारको दी। यह सुनकर तथा विचारकर जीवन्धर कुमार आश्चर्यमें पड़ गये और कहने लगे कि इसमें कुछ कारण अवश्य है ? कारणका पता चलानेके लिए उन्होंने उसी समय यक्षका स्मरण किया ।। ५२०-५२४॥ यक्ष शीघ्र ही आ गया और उसने उसकी सब खेचरी विद्या नष्ट कर शीघ्र ही उस विद्याधरको जीवन्धर कुमारके आगे
१ बरः म०।
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