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पञ्चसप्ततितमं पर्व
५.११ देवताधिष्ठिता नाम्ना शय्या स्मरतरङ्गिणी । तत्राग्रजं तव स्मृत्वा स्वप्यास्त्वं विधिपूर्वकम् ॥ ४३४ ॥ तथा प्राप्नोषि सन्तोषाचत्समीपमिति स्फुटम् । तदुक्तमवधार्यासौ रात्रौ तच्छयनेऽस्वपत् ॥ ४३५ ॥ तं तदा भोगिनीविद्या शय्ययानयदग्रजम् । तदा कुमारनन्दाढ्यौ मुदा वीक्ष्य परस्परम् ॥ ४३६ ॥ समाश्लिष्य सुखप्रश्नपूर्वकं तत्र तस्थतुः । नाधिकं प्रीतयेऽत्रान्यत्प्रीतसोदर्यसङ्गमात् ॥ ४३७ ॥ राष्ट्रेऽस्मिन्नेव विख्याते सुजनेऽस्ति परं पुरम् । नाम्ना नगरशोभाख्यं दृढमित्रस्य भूपतेः ॥ ४३८ ॥ भ्राता तस्य सुमित्राख्यो राज्ञी तस्य वसुन्धरा । रूपविज्ञानसम्पन्ना श्रीचन्द्रा तनया तयोः ॥ ४३९ ॥ आपूर्णयौवनारम्भा सा कदाचित हाङ्गणे । वीक्ष्य पारावतद्वन्द्वं स्वैरं क्रीडयदृच्छया ॥ ४४० ॥ जातजातिस्मृतिर्मूर्छा सहसा समुपागमत् । तद्दशालोकनव्याकुलीकृतास्तत्समीपगाः ॥ ४४१ ॥ कुशलाश्चन्दनोशीरशीतलाम्भोनिषेचिताम् । व्यजनापादिताह्लादिपचनाश्वासिताशयाम् ॥ ४४२ ॥ तां सम्बोध्य सुखालापैर्विभावितविबोधनाम् । विदधुः किं न कुर्वन्ति कृच्छ्रेषु सुहृदो हिताः ॥ ४४३॥ श्रुत्वैतत्पितरौ कन्याप्रियामलकसुन्दरीम् । पुत्रीं तिलकशब्दादिचन्द्रिकाया विमूच्छिताम् ॥ ४४४ ॥ कन्यां गवेषयेवेति तदा जगदतुः शुचा । सापि सम्प्राप्य सल्लापनिपुणा कन्यकां मिथः ॥ ४४५ ।। भट्टारिके वदैतसे किं मूर्छाकारणं मम । इति पृष्टवती मूर्छाहेतुं चेच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ४४६ ॥ न ह्यस्यकथनीयं मे तव प्राणाधिकप्रिये । शृणु चेतः समाधायेत्यसौ सम्यगनुस्मृतिः ॥ ४४७ ॥ स्वपूर्वभवसम्बन्धमशेषं प्रत्यपीपदत् । तत्सर्वमवधार्याशु सुधीरलकसुन्दरी ॥ ४४८ ॥ तदैवागत्य तन्मूर्छाकारणं प्राग्यथाश्रुतम् । प्रस्पष्टमधुरालापैस्तयोरेवमभाषत ॥ ४४९ ॥
स्थानपर यदि तू जाना चाहता है तो देवतासे अधिष्ठित स्मरतरङ्गिणी नामक शय्यापर अपने बड़े भाईका स्मरण कर विधि-पूर्वक सो जाना । इस प्रकार संतोषपूर्वक तू उनके पास पहुँच जायगा । गन्धर्वदत्त की बातका निश्चय कर नन्दाव्य रात्रि के समय स्मरतरङ्गिणी शय्यापर सो गया और भोगिनी नामकी विद्याने उसे शय्या सहित बड़े भाईके पास भेज दिया । तदनन्तर जीवन्धर कुमार और नन्दाय दोनों एक दूसरेको देखकर बड़ी प्रसन्नतासे मिले और सुख- समाचार पूछकर वहीं रहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में प्रसन्नता से भरे हुए दो भाइयोंके समागमसे बढ़कर और कोई दूसरी वस्तु प्रीति उत्पन्न करनेवाली नहीं है ।। ४२८-४३७ ।
अथानन्तर इसी प्रसिद्ध सुजन देशमें एक नगरशोभ नामका नगर था उसमें दृढमित्र राजा राज्य करता था । उसके भाईका नाम सुमित्र था । सुमित्रकी स्त्रीका नाम वसुन्धरा था और उन दोनोंके रूप तथा विज्ञानसे सम्पन्न श्रीचन्द्रा नामकी पुत्री थी ।। ४३८-४३६ ।। जिसके यौवनका आरम्भ पूर्ण हो रहा है ऐसी उस श्रीचन्द्राने किसी समय अपने भवनके आँगनमें इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए कबूतर और कबूतरीका जोड़ा देखा ॥ ४४० ॥ देखते ही उसे जातिस्मरण हुआ और वह अकस्मात् ही मूर्च्छित हो गई। उसकी दशा देख, समीप रहनेवाली सखियाँ घबड़ा गईं, उनमें जो कुशल थीं उन्होंने चन्दन तथा खसके ठण्डे जलसे उसे सींचा, पङ्खासे उत्पन्न हुई श्रानन्ददायी हवासे उसके हृदयको सन्तोष पहुंचाया और मीठे वचनोंसे सम्बोधकर उसे सचेत किया सो ठीक ही हैं क्योंकि हितकारी मित्रगण कष्टके समय क्या नहीं करते हैं ? अर्थात् सब कुछ करते हैं ||४४१-४४३ ॥ यह समाचार सुनकर उसके माता-पिताने तिलकचन्द्राकी पुत्री और श्रीचन्द्राकी सखी अलकसुन्दरीसे शोकवश कहा कि तू जाकर कन्याकी मूर्च्छाका कारण तलाश कर । माता-पिताकी बात सुनकर बातचीत करने में निपुण अलकसुन्दरी भी श्रीचन्द्राके पास गई और एकान्त में पूछने लगी कि हे भट्टारिके!! बतला कि तेरी मूर्च्छाका कारण क्या है ? इसके उत्तरमें श्रीचन्द्राने कहा कि हे प्राणोंसे अधिक प्यारी सखि ! यदि तू मेरी मूर्च्छाका कारण सुनना चाहती है तो चित्त लगाकर सुन, मेरी ऐसी कोई बात नहीं है जो तुझसे कहने योग्य न हो। इस प्रकार अच्छी तरह स्मरणकर उसने अपने पूर्वभवका समस्त सम्बन्ध अलकसुन्दरीको कह सुनाया । अलकसुन्दरी बड़ी बुद्धिमती थी वह शीघ्र ही सब बातको अच्छी तरह समझकर उसी समय श्रीचन्द्राके माता-पिताके पास गई और स्पष्ट तथा मधुर शब्दों में उसकी मूर्च्छाका कारण जैसा कि उसने पहले सुना था इस प्रकार कहने लगी ।।४४४-४४६ ।।
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