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पश्चसप्ततितमं पर्व
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झमाह्वयमवाप्यास्य वने बाह्ये मनोरमे । सहस्रकूटै राजन्तं जिनालयमलोकत ॥ ४०३ ॥ लोकनानन्तरं नत्वा कृताञ्जलिपुटः पुनः । त्रिःपरीत्य स्तुति कर्तुं विधिनारब्धवांस्तदा ॥ ४०४ ॥ सहसवात्मनो रागं व्यक्तं बहिरिवार्पयन् । चम्पकानोकहः प्रादुरासीको निजोद्गमैः ॥ ४०५ ॥ कोकिलाश्च पुरा मूकीभूतास्तथानभेषजैः । चिकित्सिता इव श्राव्यमकूजन्मधुरस्वरम् ॥ ४०६॥ तजैनभवनाभ्यर्णवर्तिन्यच्छाग्बुसम्भृते । स्फटिकद्रवपूर्णे वा व्यकसन् सरसि स्फुटम् ॥ ४०॥ सर्वाणि जलपुष्पाणि सम्भ्रमद्भमरारवम् । तद्गोपुरकवाटानामुद्घाटनमभूत्स्वयम् ॥ ४०८॥ तद्विलोक्य समुत्पशभक्तिः स्नानविशुद्धिभाक् । तत्सरोवरसम्मूतप्रसवैर्बहुभिाजनान् ॥ ४०९ ॥ अभ्याध्यमुंदाव्यग्रमस्तोष्टेष्टैरभिष्टवैः । सुता तत्र सुभद्राख्यश्रेष्ठिनो निवृतेश्च सा ॥ १०॥ . साक्षालक्ष्मीरिवाषणाभूनाम्ना क्षेमसुन्दरी । तद्भावि भर्तृसान्निध्ये चम्पकप्रसवादिकम् ॥ ४११ ॥ समादिशत्पुरा गर्व मुनीन्द्रो विनयन्धरः । तत्रस्थास्तत्परीक्षार्थ नियुक्तपुरुषास्तदा ॥ ४॥२॥ जीवन्धरकुमारावलोकनाजातसम्मदाः । सफलोऽस्मन्नियोगोऽभूदिति तरक्षणमेव ते ॥ ४१३॥ न्यबोधयन् समस्तं तत्सम्प्राप्य स्वामिनं निजम् । सोऽपि सन्तुष्य नासत्यं मुनीनां जातुचिद्वचः ॥४१४॥ इति तस्मै सुतां योग्यां विधिना श्रीमतेऽदित । तथा प्राङ्मे मुदा राजपुरे निवसते नृपः ॥ ४१५॥ सत्यन्धरोऽददादेतद्धनुरेतान् शरांश्च ते । योग्यास्तत्वं गृहाणेति भूयस्तेनाभिभाषितः ॥ १६॥ . गृहीत्वा सुष्ट सन्तुष्टस्तत्पुरं सुखमावसत् । एवं गच्छति कालेऽस्य कदाचिनिजविद्यया ॥१७॥
चल पड़े और कितने ही कोश चलकर क्षेम देशके क्षेम नामक नगरमें जा पहुंचे। वहाँ उन्होंने नगरके बाहर मनोहर वनमें हजार शिखरोंसे सुशोभित एक जिन-मन्दिर देखा ॥ ३६६-४०३ ।। जिनमन्दिरको देखते ही उन्होंने नमस्कार किया, हाथ जोड़े, तीन प्रदक्षिणाएँ दी और उसी समय विधिपूर्वक स्तुति करना शुरू कर दिया ।। ४०४ ॥ उसी समय अकस्मात् एक चम्पाका वृक्ष मानो अपना अनुराग बाहिर प्रकट करता हुआ अपने फूलोंसे युक्त हो गया ॥४०५॥ जो कोकिलाएँ पहले गूंगीके समान हो रही थीं वे उन कुमारके शुभागमन रूप औषधिसे चिकित्सा की हुईके समान ठीक होकर सुननेके योग्य मधुर शब्द करने लगीं ।। ४०६ ।। उस .जैन-मन्दिरके समीप ही एक सरोवर था जो स्वच्छ जलसे भरा हुआ था और ऐसा जान पड़ता था मानो स्फटिक मणिके द्रवसे ही भरा हो। उस सरोवरमें जो कमल थे वे सबके सब एक साथ फूल गये और उनपर भ्रमर मँडराते हुए गुंजार करने लगे। इसके सिवाय उस मन्दिरके द्वारके किवाड़ भी अपने आप खुल गये ॥४०७-४०८ ।। यह अतिशय देख, जीवन्धर कुमारकी भक्ति और भी बढ़ गई उन्होंने उसी सरोवरमें स्नान कर विशुद्धता प्राप्त की और फिर उसी सरोवरमें उत्पन्न हुए बहुतसे फूल लेकर जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की तथा अर्थोंसे भरे हुए अनेक इष्ट स्तोत्रोंसे निराकुल होकर उनकी स्तुति की। उस नगरमें सुभद्र सेठकी निवृति नामकी स्त्रीले उत्पन्न हुई एक क्षेमसुन्दरी नामकी कन्या थी जो कि साक्षात् लक्ष्मीके समान सुशोभित थी। पहले किसी समय विनयन्धर नामके मुनिराजने कहा था कि क्षेमसुन्दरीके पतिके समीप आनेपर चंपाका वृक्ष फूल जायगा, आदि चिह्न बतलाये थे। उसी समय सेठने उसकी परीक्षा करनेके लिए वहाँ कुछ पुरुष नियुक्त कर दिये थे ।। ४०६-४१२ ।। जीवन्धर कुमारके देखनेसे वे पुरुष बहुत ही हर्षित हुए और कहने लगे कि आज हमारा नियोग पूरा हुआ। उन लोगोंने उसी समय जाकर यह सब समाचार अपने स्वामीसे निवेदन किया। उसे सुनकर सेठ भी सन्तुष्ट होकर कहने लगा कि मुनियोंका वचन कभी असत्य नहीं होता॥४१३-४१४॥ इस प्रकार प्रसन्न होकर उसने श्रीमान् जीवन्धर कुमारके लिए विधि-पूर्वक अपनी योग्य कन्या समर्पित कर दी। तदनन्तर वही सेठ जीवन्धर कुमारसे कहने लगा कि जब मैं पहले राजपुर नगरमें रहता था तब राजा सत्यन्धरने मुझे यह धनुष और ये बाण दिये थे, ये आपके ही योग्य हैं इसलिए इन्हें आपही ग्रहण करें-इस प्रकार कहकर वह धनुष और बाण भी दे दिये ॥ ४२५-४१६ ।। जीवन्धर कुमार धनुष और बाण लेकर
१ मधुरस्वरः म०।
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