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महापुराण उत्तरपुराणम
तदभिप्रायमालक्ष्य यक्षो दवा स्फुरत्प्रभाम् । साधनीमीप्सितार्थानां मुद्रिका कामरूपिणीम् ॥ ३८८ ॥ तदद्रेवतार्येनं न भीरस्य कुतश्चन । इति किञ्चिदनुव्रज्य तममुञ्चत्कृताञ्चनः ॥ ॥ ३८९ ॥ कुमारोऽपि ततः किञ्चिद्स्वान्तरमुपेयिवान् । पुरं चन्द्रामनामानं सज्योरखं वा सुधागृहैः ॥३९॥ नृपो धनपतिस्तस्य पालको लोकपालवत् । देवी तिलोतमा तस्य तयोः पोरामा सुता ॥ ३९१ ॥ सा विहत वनं याता दष्टा दुष्टाहिना तदा। य इमां निविषीकुर्यान्मणिमन्त्रौषधादिभिः ॥ ३९२ ॥ मयेयं कन्यका तस्मै सार्धराज्या प्रदास्यते । घोषणामिति भूपालः पुरे तस्मिनचीकरत् ॥ ३९३ ॥ फणिवैद्यास्तदाकार्य प्रागप्यादिष्टमीरशम् । मुनिनादित्यनान्नेति कन्यालोभाचिकित्सितुम् ॥ ३९४ ॥ सम्प्राप्य बहवो नोपसंहर्त तदशनवन् । राजाज्ञया पुनर्वैयमन्वेष्टुं परिचारकाः॥ ३९५ ॥ धावन्तो दैवसंयोगात्कुमारमवलोक्य ते । किमस्ति विषविज्ञानमित्यपृच्छंस्तमाकुलाः ॥ ३९६ ॥ सोऽपि तज्ज्ञायते किञ्चिन्मयेति प्रत्यभाषत । तद्वचःश्रुतिसन्तुष्टास्ते नयन्ति स्म तं मुदा ॥ ३९७ ॥ सोऽपि यक्षमनुस्मृत्य 'फणिमन्त्रविशारदः । अभिमन्व्याकरोद्वीतविषवेगां नृपात्मजाम् ॥ ३९८ ॥ जाततोषो नृपस्तम्य सत्त्वच्छायादिलक्षणैः । अवश्यं राजवंशोऽयमिति निश्चित्य पुत्रिकाम् ॥ ३९९ ॥ अर्धराज्यञ्च पूर्वोक्तं तस्मै वितरति स्म सः। ततः स लोकपालादिकन्यकाभ्रातृभिः समम् ॥ ४०॥ द्वात्रिंशता चिरं रेमै तद्गुणैरनुरञ्जितः। दिनानि कानिचिरात्र स्थित्वा देवप्रचोदितः ।। ४.१॥ कदाचिनिशि केनापि जनेनानुपलक्षितः । गत्वा गव्यतिकाः काश्चित्क्षेमाख्यविषये पुरम् ॥ ४०२ ॥
तक सुखसे रहे । तदनन्तर चेष्टाओंसे उन्होंने यक्षसे अपने जानेकी इच्छा प्रकट की ।। ३८७। उनका अभिप्राय जानकर यक्षने उन्हें जिसकी कान्ति देदीप्यमान है, जो इच्छित कार्योंको सिद्ध करने वाली है, और इच्छानुसार रूप बना देने वाली है ऐसी एक अंगूठी देकर उस पर्वतसे नीचे उतार दिया और उन्हें किसीसे भी भयकी आशंका नहीं है यह विचार कर वह यक्ष कुछ दूर तो उनके पीछे आया और बादमें पूजा कर चला गया ॥ ३८८-३८६॥ कुमार भी वहाँ से कुछ दूर चल कर चन्द्राम नामक नगरमें पहुँचे। वह नगर चूनासे पुते हुए महलोंसे ऐसा जान पड़ता था मानों चाँदनीसे सहित ही हो॥३६॥ वहाँ के राजाका नाम धनपति था जो कि लोकपालके समान नगरकी रक्षा करता था। उसकी रानीका नाम तिलोत्तमा था और उन दोनोंके पद्मोत्तमा नामकी पुत्री थी॥ ३४१॥ वह कन्या विहार करनेके लिए वनमें गई थी, वहाँ दुष्ट साँपने उसे काट खाया, यह यह देख राजाने अपने नगरमें घोषणा कराई कि जो कोई मणि मन्त्र औषधि आदिके द्वारा इस कन्याको निर्विष कर देगा मैं उसे यह कन्या और आधा राज्य दूंगा ॥ ३६२-३६३ ॥ आदित्य नामके मुनिराजने यह बात पहले ही कह रक्खी थी इसलिए राजाकी यह घोषणा सुनकर साँपके काटनेका दवा करने वाले बहुत से वैद्य, कन्याके लोभसे चिकित्सा करनेके लिए आये परन्तु उस विषको दूर करने में समर्थ नहीं हो सके। तदनन्तर राजाकी आज्ञासे सेवक लोग फिर भी किसी वैद्यको ढूँढ़नेके लिए निकले और इधर-उधर दौड़-धूप करनेवाले उन सेवकोंने भाग्यवश जीवन्धर कुमारको देखा। देखते ही उन्होंने बड़ी व्यग्रतासे पूछा कि क्या आप विष उतारना जानते हैं ? ३६४-३६६ ॥ जीवन्धर कुमारने भी उत्तर दिया कि हाँ, कुछ जानता हूं। उनके वचन सुनकर सेवक लोग बहुत ही सन्तुष्ट हुए और उन्हें बड़े हर्षसे साथ ले गये ।। ३६७ । साँप काटनेका मन्त्र जानने में निपुण जीवन्धरने भी उस यक्षका स्मरण किया और मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर राजपुत्रीको विष-वेगसे रहित कर दिया ।। ३६८।। इससे राजाको बहुत सन्तोष हा उसने तेज तथा कान्ति आदि लक्षणोंसे निश्चय कर लिया कि यह अवश्य ही राजवंशमें उत्पन्न हुआ है इसलिए उसने अपनी पुत्री और पहले कहा हुधा आधा राज्य उन्हें समर्पण कर दिया। उस कन्याके लोकपाल आदि बत्तीस भाई थे उनके गुणोंसे अनुरञ्जित होकर जीवन्धर कुमार उन्हीं के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे । तदनन्तर वहाँ कुछ दिन रहकर भाग्यकी प्रेरणासे वे किसीसे कुछ कहे बिना ही रात्रिके समय चुपचाप यहाँसे
१ मणिमन्त्र-ल.
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