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महापुराणे उत्तरपुराणम् तदा प्रभृति ते कन्ये परस्परनिबन्धनम् । विद्याविहितसहर्ष त्यजतः 'स्मास्तमत्सरे ॥ ३५८ ॥ अथात्र नागरेश्वात्मवान्छया क्रीडन वने । कुर्वत्स्वेकं समालोक्य कुक्कुरं खलबालकाः ॥ ३५९॥ भर्क्सयन्ति स्म चापल्यात्सोऽपि धावन् भयाकुलः । इदे निपत्य तत्रैव प्राणमोक्षोन्मुखोऽभवत् ॥३६।। भृत्यैस्ततस्तमानाय्य जीवन्धरकुमारकः । कर्णौ तस्य नमस्कारपदैः सम्पर्य पूरयत् ॥ ३६१ ॥ प्रतिगृह्य नमस्कारं चन्द्रोदयगिरावभूत् । यक्षः सुदर्शनो नाम स्मृतपूर्वभवस्तदा ॥ ३६२ ।। प्रत्यागत्य कुमारं तं त्वत्प्रसादान्मयेडशी। लब्धा विभूतिरित्युच्चैः स्तुत्या सम्पाद्य विस्मयम् ॥ ३६३ ॥ सर्वेषां दिव्यभूषाभिः कृतविचमपूजयत् । इतः प्रभृत्यहं स्मर्यो व्यसनोत्सवयोस्त्वया ॥ ३६४ ॥ कुमारेति उतमभ्यर्थ्य स्वं धामैव जगाम सः। अकारणोपकाराणामवश्यंभावि तत्फलम् ॥ ३६५ ॥ चिरं वने विहृत्यैवं निवृत्तौ गन्धवारणः । तन्महीशस्य नान्नाशनिघोषो जनघोपतः ॥ ३६६ ॥ समुद्घान्तो निवार्योऽन्यैरधावस्यन्दन प्रति । सुदृप्तः सुरमार्याः स कुमारो विलोक्य तम् ॥ ३७॥ विनयोजयनिर्णीतक्रियः सम्प्राप्य हेलया। कृत्वा परिश्रमं तस्य द्वात्रिंशत्केलिभिः स्वयम् ॥ ३६८ ॥ वीतश्रमस्तमस्पन्दं हेलयालानमापयत् । दृष्ट्वास्य गजविज्ञानं पुरं शंसन् जनोऽविशत् ॥ ३६९ ।। तदा प्रभृत्यगात्कामव्यामोहे सुरमारी। जीवन्धरकुमारावलोकनाकुलिताशया॥ ७० ॥ इङ्गितैश्चेष्टितैस्तस्याः सङ्कथाभिश्च युक्तितः । माता पिता च जीवन्धराभिलाषपरायणाम् ॥ ३१॥
देर नहीं लगी कि सुगन्धिकी अधिकताके कारण भौरोंके समूहने चन्द्रोदय चूर्णको घेर लिया। यह देख, वहाँ जो भी विद्वान उपस्थित थे वे सब जीवन्धर कुमारकी स्तुति करने लगे ॥३५४-३५७॥ उस समयसे उन दोनों कन्याओंने विद्यासे उत्पन्न होनेवाली परस्परकी ईर्ष्या छोड़ दी और दोनों ही मात्सर्यरहित हो गई ॥३५८ ॥ तदनन्तर-उधर नगरवासी लोग वनमें अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे इधर कुछ दुष्ट बालकोंने एक कुत्ताको देखकर चपलता वश मारना शुरू किया। भयसे व्याकुल हो कर वह कुत्ता भागा और एक कुण्डमें गिरकर मरणोन्सुख हो गया। जब जीवन्धर कुमारने यह हाल देखा तो उन्होंने अपने नौकरोंसे उस कुत्तेको वहाँ से निकलवाया और उसके दोनों कान पञ्चनमस्कार मन्त्रसे भर दिये। नमस्कार मन्त्रको ग्रहण कर वह कुत्ता चद्रोदय पर्वत पर सुदर्शन नामका यक्ष हुआ। पूर्व भवका स्मरण होते ही वह जीवन्धर कुमारके पास वापिस आया और कहने लगा कि मैंने यह उत्कृष्ट विभूति आपके ही प्रसादसे पाई है। इस प्रकार दिव्य आभूषणोंके द्वारा उस कृतज्ञ यक्षने सबको आश्चर्यमें डालकर जीवन्धर कुमारकी पूजा की और कहा कि हे कुमार ! आजसे लेकर दुःख और सुखके समय आप मेरा स्मरण करना। इस प्रकार कुमारसे प्रार्थना कर वह अपने स्थान पर चला गया। आचार्य कहते हैं कि बिना कारण ही जो उपकार किये जाते हैं उनका फल अवश्य होता है।३५-३६५॥
इस प्रकार वनमें चिरकाल तक क्रीड़ा कर जब सब लोग लौट रहे थे तब राजाका अशनिघोष
|मदोन्मत्त हाथी लागोका हल्ला सुन कर बिगड़ उठा। वह अहंकारसे भरा हुआ था और साधारण मनुष्य उसे वश नहीं कर सकते थे। वह हाथी सुरमञ्जरीके रथकी ओर दौड़ा चला आ रहा था। उसे देख कर जीवन्धर कुमारने हाथीकी बिनय और उन्नय क्रियाका शीघ्र ही निर्णय कर लिया. वेलीला पूर्वक उसके पास पहुंचे, बत्तीस तरहकी क्रीड़ाओंके द्वारा उसे खेद खिन्न कर दिया
(न्तु स्वयंका कुछ भी खद नहीं हान दिया । अन्तम वह हाथी निश्चष्ट खड़ा हो गया और उन्होंने सालानसे बाँध दिया। यह सब देख नगरवासी लोग जीवन्धर कुमारके हस्ति-विज्ञानकी प्रशंसा करते हुए नगरमें प्रविष्ट हुए ।। ३६६-३६६ ॥ जीवन्धर कुमारके देखनेसे जिसका हृदय व्याकुलित हो रहा है ऐसी सुरमञ्जरी उसी समयसे कामसे मोहित हो गई। ३७० ।। सुरमञ्जरीके माता-पिताने. उसकी इंगितोंसे, चेष्टाओंसे तथा बात-चीतसे युक्ति पूर्वक यह जान लिया कि इसकी
१ स्मात्तसङ्गरे इति क्वचित् ।
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