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पञ्चसप्ततितम पर्व
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आरुह्य शत्रुसैन्यस्य प्रतीपमगमत्क्रुधा । तदा गरुडवेगाख्यविद्याधरधराधिपः ॥ ३४२ ॥ पिता गन्धर्वदत्ताया गत्वा मध्यस्थतां तयोः । उपायकुशलः शत्रुबलं प्रशममानयत् ॥ ३४३ ॥ ततस्तयोविवाहेन विधायासौ समागमम् । कृतार्थोऽभूत्पितुर्नान्यत्कार्य कन्यासमर्पणात् ॥ ३४४ ॥ तयोः परस्परप्रेमप्रवृद्धसुखयोरगात् । निर्वृतिः परमां काष्ठां समसंयोगसम्भवा । ३४५ ॥ अथान्यदा मधौ मासे मदनांदयसाधने । सुरादिमलयोद्याने वनक्रीडानिमितकम् ॥ ३४६. नृपेण सह सर्वेषु पौरेषु सुखलिप्सया । आविष्कृतस्वसम्पत्सु यातेषु परमोत्सवात् ॥ ३४७ ।। पुरे तस्मिन्वणिमुख्योऽभूद्वैश्रवणदत्तवाक् । तनूजा चूतमञ्जयां तस्यासीस्सुरमारी ॥ ३४८ ॥ तस्याः श्यामलता चेटक्यसौ चन्द्रोदयायः । चूर्णवासोऽयमस्स्यन्यो नास्मानन्धेन बन्धुरः॥ ३४९ ॥ इत्यात्मस्वामिनीदाक्ष्यप्रकाशनपरायणा । इतस्ततः समुद्धष्य विचचार जनान्तरे ॥ ३५० ॥ कुमारदत्तवैश्यस्य विमलायां सुताभवत् । गुणमालामला तस्यानेटकी पटुभाषिणी ॥ ३५१ ॥ विद्यल्लताभिधा चूर्णवासोऽयं षट्पदावृतः । वर्यः सूर्योदयो नाम नेहक्स्वर्गेऽपि विद्यते ॥ ३५२ ॥ इति विद्वत्सभामध्ये भूयः स्वस्वामिनीगुणम् । विद्योतयन्ती बत्राम सुभ्रर्गर्वग्रहाहिता ॥ ३५३ ।। एवं तयोः समुद्भूतमात्सर्याहितचेतसोः । विवादे सति तद्विद्यावेदिनस्तत्परीक्षितुम् ॥ ३५४ ॥ अभूवनक्षमास्तत्र जीवन्धरयुवेश्वरः । परीक्ष्य तस्वयं सम्यक् ष्ठश्चन्द्रोदयोऽनयोः ॥ ३५५ ॥ प्रत्ययः कोऽस्य चेद्वयक्तं दर्शयामीति तवयम् । अवष्टभ्य स्वहस्ताभ्यां विचिक्षेप ततो द्रुतम् ॥३५६॥
चन्द्रोदयमलिबातो गन्धोत्कर्षात्परीतवान् । दृष्टा सर्वेऽपि तत्रस्थास्तत्तमेवास्तुवन्विदः ॥ ३५७ ॥ बलवान् विद्याधरोंके साथ जयगिरि नामक गन्धगज पर सवार होकर बड़े क्रोधसे शत्रु-सेनाके सम्मुख गये। उसी समय उपाय करने में निपुण गन्धर्वदत्ताके पिता गरुड़वेग नामक विद्याधरोंके राजाने उन दोनोंकी मध्यस्थता प्राप्त कर शत्रुकी सेनाको शान्त कर दिया । ३४०-३४३ ॥ तदनन्तर विवाहके द्वारा जीवन्धर कुमार और गन्धर्वदत्ताका समागम कराकर गरुड़वेग कृतकृत्य हो गया सो ठीक ही है क्योंकि पिताको कन्या समर्पण करनेके सिवाय और कुछ काम नहीं है ॥३४४॥ परस्परके प्रेमसे जिनका सुख बढ़ रहा है ऐसे उन दोनोंकी सम संयोगसे उत्पन्न होने वाली तृप्ति परम सीमाको प्राप्त हो रही थी॥ ३४५ ॥
अथानन्तर-कामदेवको उत्तेजित करने वाला वसन्त ऋतु आया। उसमें सब नगर-निवासी लोग सुख पानेकी इच्छासे अपनी सब सम्पत्ति प्रकट कर बड़े उत्सवसे राजाके साथ सुरमलय उद्यानमें वन-क्रीड़ाके निमित्त गये ।। ३४६-३४७ ।। उसी नगरमें वैश्रवणदत्त नामक एक सेठ रहता था। उसकी आम्नमञ्जरी नामकी स्त्रीसे सुरमञ्जरी नामकी कन्या हुई थी। उस सुरमञ्जरीकी एक श्यामलता नामकी दासी थी। वह भी सुरमञ्जरीके साथ उसी उद्यानमें आई थी। उसके पास एक चन्द्रोदय नामका चूर्ण था उसे लेकर वह यह घोषणा करती फिरती थी कि सुगन्धिकी अपेक्षा इस चूर्णसे बढ़कर दूसरा चूर्ण है ही नहीं। इस प्रकार वह अपनी स्वामिनीकी चतुराईको प्रकट करती हुई लोगोंके बीच घ
च घूम रही थी ।।३४८-३५०॥ उसी नगरमें एक कुमारदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी विमला स्त्रीसे अत्यन्त निर्मल गुणमाला नामकी पुत्री हुई थी। गुणमालाकी विद्यल्लता नामकी दासी थी जो बात-चीत करनेमें बहुत ही चतुर थी। अच्छी भौंहोंको धारण करने वाली तथा अभिमान रूपी पिशाचसे प्रती वह विद्युल्लता विद्वानोंकी सभामें बार-बार अपनी स्वामिनीके गुणोंको प्रकाशित करती और यह कहती हुई घूम रही थी कि यह सूर्योदय नामका श्रेष्ठ चूर्ण है और इतना सुगन्धित है कि इस पर भौंरे आकर पड़ रहे हैं ऐसा चूर्ण स्वर्गमें भी नहीं मिल सकता है ॥ ३५१-३५३ ।। इस दोनों दासियोंमें जब परस्पर विवाद होने लगा और इस विद्याके जानकार लोग जब इसकी परीक्षा करने में समर्थ नहीं हो सके तब वहीं पर खड़े हुए जीवन्धर कुमारने स्वयं अच्छी तरह परीक्षा कर कह दिया कि इन दोनों चूर्णो में चन्द्रोदय नामका चूर्ण श्रेष्ठ है। इसका क्या कारण है। यदि आप यह जानना चाहते हैं तो मैं यह अभी स्पष्ट रूपसे दिखाता हैं। ऐसा कह कर जीवन्धर कुमारने उन दोनों चूर्णोको दोनों हाथों से लेकर ऊपरकी फेंक दिया। फेंकते
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