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महापुराणे उत्तरपुराणम्
तदा गन्धर्वदत्तापि स्वयंवरसभागृहम् । प्रविश्य 'वीणाञ्चादाय सुघोषाख्यां सुलक्षणाम् ॥ ३२७॥ स्वरग्रामादिसद्वार्थ शुद्धदेशजलक्षणम् । गीतमिश्रं विधायैतानधरीकृत्य भूभुजः ॥ ३२८ ॥
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* स्थिता जीवन्धरस्तस्या वीणाविद्याकृतं मदम् । निराचिकीर्षुरागत्य स्वयंवरसभागृहम् ॥ ३२९ ॥ अपक्षपतितान् प्राज्ञान् वीणाविद्याविशारदान् । गुणदोषपरीक्षायां नियोज्योभयसम्मतान् ॥ ३३० ॥ निर्दोषा दीयतां वीणेत्यभ्यधात्तन्नियोगिनः । वीणास्त्रिचतुरास्तस्मै तदानीय समर्पयन् ॥ ३३१ ॥ केशरोमलवादीनां दोषाणां तासु दर्शनात् । स ताः सर्वा निराकृत्य कन्यकां प्रत्यपादयत् ॥ १३२ ॥ यदि निर्मत्सरासि त्वं त्वद्वीणा दीयतामिति । अदितासौ च तां वीणां स्वकरस्थां कृतादरम् ॥ ३३३ ॥ नामादाय कुमारेण शास्त्रमार्गानुसारिणा । गीतमिश्रितवाद्येन मन्द्रतारेण हारिणा ॥ ३३४ ॥ मधुरेण मृगाणाञ्च मनोविभ्रमकारिणा । गीतञ्च साधुवादोद्धप्रसूनार्चनभासिना ॥ ३३५ ॥ हृदि गन्धर्वदत्तैनं पञ्चबाणप्रचोदिता । मालयालञ्चकाराये सम्मुखे किं न जायते ॥ ३३६ ॥ हीनभासोऽभवन्केचिद्दिनदीपोपमाः परे । निशाप्रदीपसङ्काशा भासमानाननास्तदा ॥ ३३७ ॥ सुघोषाहेतुना प्रातकुमारा परितोषिणी । गन्धर्वदशा तां वीणामात्मन्येवमभाषत ॥ ३३८ ॥ कुलोचिता सुघोषा त्वं मधुरा चिधहारिणी । कुमारसङ्गमे हेतुर्दूतीय कुशला मम ॥ ३३९ ॥ काष्ठाङ्गारिकपुत्रेण चोदितेन सुदुर्जनैः । गन्धर्वदत्तामाहर्तुमुद्यमो विहितस्तदा ॥ ३४० ॥ कुमारोऽपि विदित्वैतद्बलाधिकपुरस्सरैः । विद्याधरैः समं गन्धगजं जयगिरिश्रुतिम् ॥ ३४१ ॥
उसी समय गन्धर्वदत्ताने भी सुघोषा नामकी उत्तम लक्षणों वाली वीणा लेकर स्वयंवरके सभागृहमें प्रवेश किया ॥ ३२७॥ वहाँ श्राकर उसने गीतोंसे मिले हुए शुद्ध तथा देशज स्वरोंके समूहसे वीणा बजाई और सब राजाओंको नीचा दिखा दिया । तदनन्तर उसका वीणासम्बन्धी मद दूर करने की इच्छा से जीवन्धर कुमार स्वयंवर - सभाभवनमें आये । आते ही उन्होंने उन लोगोंको गुण और दोषकी परीक्षा करनेमें नियुक्त किया कि जो किसीके पक्षपाती नहीं थे, बुद्धिमान् थे, वीणाकी विद्या में निपुण थे और दोनों पक्ष के लोगोंको इष्ट थे ।। ३२८-३३० ।। इसके बाद उन्होंने कार्य करनेके लिए नियुक्त पुरुषोंसे 'निर्दोष वीणा दी जाय' यह कहा । नियोगी पुरुषोंने तीन-चार वीणाएं लाकर उन्हें सौंप दीं परन्तु जीवन्धर कुमारने उन सबमें केश रोम लव आदि दोष दिखाकर उन्हें वापिस कर दिया और कन्या गन्धर्वदत्ता से कहा कि 'यदि तू ईर्ष्या रहित है तो अपनी वीणा दे' । गन्धर्वदत्ताने अपने हाथकी वीणा बड़े आदरसे उन्हें दे दी । कुमारने उसकी वीणा ले कर गाया, उनका वह गाना शास्त्र के मार्गका अनुसरण करने वाला था, गीत और बाजेकी आवाजसे मिला हुआ था, गंभीर ध्वनि से सहित था, मनोहर था, मधुर था, हरिणोंके मन में विभ्रम उत्पन्न करने वाला था और उस विद्याके जानकार लोगोंके धन्यवाद रूपी श्रेष्ठ फूलोंकी पूजासे सुशोभित था ।। ३३१-३३५ ॥ उनका ऐसा गाना सुनकर गन्धर्वदत्ता हृदयमें कामदेव के बाणोंसे प्रेरित हो उठी। इसलिए इसने उन्हें मालासे अलंकृत कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके सम्मुख रहते हुए क्या नहीं होता है ? अर्थात् सब कुछ होता है ।। ३३६ ।। उस समय कितने ही लोग दिनमें जलाये हुए दीपकके समान कान्तिहीन हो गये और कितने ही लोग रात्रिमें जलाये हुए दीपकोंके समान देदीप्यमान मुखके धारक हो गये । भावार्थ - जो ईर्ष्यालु थे वे जीवन्धर कुमारकी कुशलता देख कर मलिनमुख हो गये और जो गुणग्राही थे उनके मुख सुशोभित होने लगे ||३३७|| गन्धर्हृदत्ता सुघोषा नामक वीणाके द्वारा ही जीवन्धर कुमारको प्राप्त कर सकी थी इसलिए वह सन्तुष्ट हो कर अपने मनमें इस प्रकार कह रही थी कि हे सुघोषा ! तू मेरे कुलके योग्य है, मधुर है, और मनको हरण करने वाली है, कुमारका संग प्राप्त करानेमें तू ही चतुर दूतीके समान कारण हुई है ।। ३३८-३३९ ।। उस समय दुर्जनोंके द्वारा प्रेरित हुए काष्ठाङ्गारिकके पुत्र कालाङ्गारिकने गन्धर्वदत्तक हरण करनेका उद्यम किया। जब जीवन्धर कुमारको इस बातका पता चला तब वे अधिक
१ वीणामादाय म०, ल० । २ स्थितो ल० । ३ श्रये पुण्ये |
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