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पञ्चसप्ततितम पर्व
भविता कथमस्मा सम्बन्धो भूभिगोचरैः । इत्यप्राक्षीरपुनश्चैनं मन्त्रिर्ण मतिसागरम् ॥ १३ ॥ सोऽप्यन्यच मुनेति स्पष्टमेवमभाषत । श्रेष्ठी वृषभदत्ताख्यस्तस्मिन् राजपुरे प्रिया ॥ ३१॥ तस्य पावतीसूनुजिनदरास्तयोरभूत् । स कदाचित्पुरे तस्मिनद्याने प्रीतिवर्धने ॥१५॥ जिनं सागरसेनाख्यं केवलज्ञानपूजने । भक्तया वन्दितुमायातस्तञ्च तद्गुरुणा समम् ॥ ३१६ ॥ एष्टा तं तत्र तेनामा प्रीतिस्ते समजायत । देहभेदाद्विनान्येन भेदो न युवयोरभूत् ॥ ३१ ॥ एवं दिनेषु गच्छत्सु केपुचिद्वणिर्जा वरः। जिनदत्तमवस्थाप्य स्वस्थाने निकटे मुनेः ॥१८॥ गुणपालाभिधानस्य लब्धबोधिरदीक्षत । सुव्रताक्षान्तिसानिध्यं सम्प्राप्यादाय संयमम् ॥ ३१९ ॥ पद्मावती च कौलीन्यं सुनता सान्यपालयत् । जिनदत्तोऽपि विरोशः पितुः पदमधिष्ठितः ॥ ३२० ॥ 'मनोहरादिरामाभिः कार्म कामान्समन्वभूत् । स रत्नद्वीपमर्थार्थ स्वयमेवागमिष्यति ॥ ३१॥ सेनैवास्मदभिप्रेसकार्यसिद्धिर्भविष्यति । इत्यसौ चागमत्केषुचिदिनेषु तदन्तिकम् ॥ ३२२॥ ततस्तुष्टः खगाधीशः कृतप्राणिकक्रियः । मित्र गन्धर्वदचायाः मत्सुतायाः स्वयंवरम् ॥ ३२३ ॥ त्वत्पुरे कारयेत्येनमभ्यधादधिकादरः। जिनदत्तोऽपि तां नीत्वा सह राजपुरं खगैः॥ ३२ ॥ स्वयंवरं समुद्धोष्य मनोहरवनान्तरे। मनोहरं समुत्पाद्य स्वयंवरमहागृहम् ॥ ३२५ ॥ उकलाविदग्धविचेशभूगोचरमहीशिषु । ४कुमारेषु प्रयातेषु जिनपूजां न्यवर्तयत् ॥ ३२६ ॥
गन्धर्वदत्ताको जीतेगा और इस तरह गन्धर्वदत्ता उसीकी भार्या होगी। मन्त्रीके इस प्रकारके वचन सुनकर राजा कुछ व्याकुल हुआ और उसी मतिसागर मन्त्रीसे पूछने लगा कि हम लोगोंका भूमिगोचरियोंके साथ सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है ? ॥ ३०७-३१३ ॥ इसके उत्तरमें मन्त्रीन मुनिराजप्से जो कुछ अन्य बातें मालूम की थीं वे सब स्पष्ट कह सुनाई। उसने कहा कि उसी राजपुर नगरमें एक वृषभदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम पद्मावती था। उन दोनोंके एक जिनदत्त नामका पुत्र हुआ था। किसी एक समय उसी राजपुर नगरके प्रीतिवर्धन नामक उद्यानमें सागरसेन नामक जिनराज पधारे थे उनके केवलज्ञानकी भक्तिप्ते पूजा-वन्दना करनेके लिए वह अपने पिताके साथ आया था। आप भी वहाँ पर गये थे इसलिए उसे देखकर आपका उसके साथ प्रेम हो गया था। इतना अधिक प्रेम हो गया था कि शरीरभेदको छोड़ कर और किसी बातकी अपेक्षा आप दोनों में भेद नहीं रह गया था ।। ३१४-३१७॥ इस प्रकार कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर एक दिन वृषभदत्त सेठ अपने स्थान पर जिनदत्तको बैठाकर आत्मज्ञान प्राप्त होनेसे गुणपाल नामक मुनिराजके निकट दीक्षित हो गया और उसकी खी पद्मावतीने भी सुव्रता नाम प्रायिकाके पास जाकर संयम धारण कर लिया तथा उत्तम व्रत धारण कर वह अपनी कुलीनता की रक्षा करने लगी। इधर जिनदत्त भी धनका मालिक होकर अपने पिताके पद पर आरूढ़ हुआ
और मनोहरा आदि स्त्रियोंके साथ इच्छानुसार भोग भोगने लगा। वह जिनदत्त धन कमानेके लिए स्वयं ही इस रनद्वीपमें आवेगा ।। ३१८-३२१ ॥ उसीसे हमारे इष्ट कार्यकी सिद्धि होगी। इस तरह कितने ही दिन बीत जानेपर वह जिनदत्त गरुड़वेगके पास आया। इससे गरुड़वेग बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। उसने जिनदत्तका अच्छा सत्कार किया। तदनन्तर विद्याधरोंके राजा गरुड़वेगने बड़े आदरके साथ जिनदत्तसे कहा कि हे मित्र ! आप अपनी नगरीमें मेरी पुत्री गन्धर्षदत्ताका स्वयंवर करा दो। उसकी आज्ञानुसार जिनदत्त भी अनेक विद्याधरोंके साथ गन्धर्वदत्तको राजपुर नगर ले गया ॥ ३२२-३२४ ॥ वहाँ जाकर उसने मनोहर नामके वनमें स्वयंवर होनेकी घोषणा कराई और एक बहुत सुन्दर बड़ा भारी स्वयंवर-गृह बनवाया ॥ ३२५ ।। जब अनेक कलाओंमें चतुर विद्याधर तथा भूमिगोचरी राजकुमार आ गये नब उसने जिनेन्द्र भगवान्की पूजा कराई ॥ ३२६ ।।
१ मनोरमादि-ल० । २ समुधुष्य ल०। ३ कलाविद्याविदग्धेषु न । ४ सुकुमारेषु यातेषु ल०, ग., म.।
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