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महापुराणे उत्तरपुराणम्
कुमारोऽपि प्रतिज्ञाय नीत्वा सार्धं तमात्मना । पितुः सन्निधिमाहारो मयास्मै स्म प्रदीयतें ॥ २६८ ॥ भवान्प्रमाणमित्याख्यच्छ्रुत्वा ततत्पिता मुदा । विनीतोऽयं सुतः श्लाघ्यो ममेस्याश्लिष्य तं मुहुः ॥ २६९॥ पुत्र स्नानावसानेऽयं मयामा साधु भोक्ष्यते । त्वया व्यपगताशङ्कं भोक्तव्यमिति सोऽभ्यधात् ॥ २७० ॥ सहायैः सह संविश्य भोक्तुं प्रारब्धवानसौ । अथार्भकस्वभावेन सर्वमुष्णमिदं कथम् ॥ २७१ ॥ ressमिति रोदित्वा जननीमकदर्थंयत् । रुदन्तं तं समालोक्य भद्वैशत्ते न युज्यते ॥ २७२ ॥ • अपि स्वं वयसाल्पीयान् धीस्थो वीर्यादिभिर्गुणैः । अधरीकृतविश्वोऽसि हेतुना केन रोदिषि ॥ २७३ ॥ इति तापसवेषेण भाषितः स कुमारकः । शृणु पूज्य न वेत्सि त्वं रोदनेऽस्मिन्गुणानिमान् ॥ २७४ ॥ निर्याति संहत श्लेष्मा वैमल्यमपि नेत्रयोः । शीतीभवति चाहारः कथमेतनिवार्यते ॥ २७५ ॥ इस्याख्यत्तत्समाकर्ण्य मातास्य मुदिता सती । यथाविधि सहायैस्तं सह सम्यगभोजयत् ॥ २७६ ॥ ततो गन्धोत्कटो भुक्त्वा सन्निविष्टो यथासुखम् । तेन तापसवेषोऽपि भुक्त्वामैवमभाषत ॥ ३७७ ॥ कुमारेऽस्मिन्मम स्नेहोऽभूदवेक्ष्यास्य योग्यताम् । मया शास्त्राब्धिसन्धौतमतिरेष करिष्यते ॥ २७८ ॥ इति तद्भाषितं श्रुत्वा वरिष्ठः श्रावकेष्वहम् । नान्यलिङ्गिनमस्कारं कुर्वे केनापि हेतुना ॥ २७९ ॥ स्थाद्वैमनस्यं तेऽवश्यं तद्भावेऽतिमानिनः । इति श्रेष्ठग्राह तच्छ्रुत्वा स्वसद्भावमथाब्रवीत् ॥ २८० ॥ राजा सिंहपुरस्याहमार्यवर्माभिधानकः । वीरनन्दिमुनेः श्रुत्वा धर्म संशुद्धदर्शनः ॥ २८१ ॥ तिषेणाय मद्राज्यं प्रदायादाय संयमम् । तीम्रोदराभिसम्भूतमहादाहासहिष्णुकः ॥ २८२ ॥
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कुमारसे याचना की कि तुम मुझे भोजन दो ।।२६२-२६७।। जीवन्धरकुमार उसे भांजन देना स्वीकृत कर अपने साथ ले पिताके पास पहुँचे और कहने लगे कि मैंने इसे भोजन देना स्वीकृत किया है फिर, जैसी आप आज्ञा दें । कुमारकी बात सुनकर पिता बहुत ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि मेरा यह पुत्र बड़ा ही विनम्र और प्रशंसनीय है। यह कहकर उन्होंने उसका बार-बार आलिंगन किया और कहा कि हे पुत्र ! यह तपस्वी स्नान करनेके बाद मेरे साथ अच्छी तरह भोजन कर लेगा। तू निःशङ्क होकर भोजन कर || २६८ - २७० ।। तदनन्तर जीवन्धरकुमार अपने मित्रोंके साथ बैठकर भोजन करनेके लिए तैयार हुए। भोजन गरम था इसलिए जीवन्धर कुमार रोकर कहने लगे कि यह सब भोजन गरम रखा है मैं कैसे खाऊँ ? इस प्रकार रोकर उन्होंने माताको तंग किया । उन्हें रोता देख तपस्वी कहने लगा कि भद्र ! तुझे रोना अच्छा नहीं लगता । यद्यपि तू अवस्थासे छोटा है तो भी बड़ा बुद्धिमान् है, तूने अपने वीर्य आदि गुणोंसे सबको नीचा कर दिया है । फिर तू क्यों रोता है ? ।। २७१-२७३ ।। तपस्वीके ऐसा कह चुकने पर जीवन्धरकुमारने कहा कि हे पूज्य ! आप जानते नहीं हैं । सुनिये, रोनेमें ये गुण हैं- पहला गुण तो यह है कि बहुत समयका संचित हुआ कफ निकल जाता है, दूसरा गुण यह है कि नेत्रोंमें निर्मलता आ जाती है और तीसरा गुण यह है कि भोजन ठण्डा हो जाता है । इतने गुण होनेपर भी आप मुझे रोनेसे क्यों रोकते हैं ? ।। २७४-२७५ ।। पुत्रकी बात सुनकर माता बहुत ही प्रसन्न हुई और उसने मित्रोंके साथ उसे विधिपूर्वक अच्छी तरह भोजन कराया ।। २७६ ।। तदनन्तर जब गन्धोत्कट भोजन कर सुखसे बैठा और तपस्वी भी उसीके साथ भोजन कर चुका तब तपस्वीने गन्धोत्कटसे कहा कि इस बालककी योग्यता देखकर इसपर मुझे
ह हो गया है अतः मैं इसकी बुद्धिको शास्त्र रूपी समुद्रमें अवगाहन कर निर्मल बनाऊँगा ||२७७२७८ ॥ तपस्वीकी बात सुनकर गन्धोत्कटने कहा कि मैं श्राक्कोंमें श्रेष्ठ हूँ - श्रावकके श्रेष्ठ व्रत पालन करता हूँ इसलिए अन्य लिङ्गिन्योंको किसी भी कारणसे नमस्कार नहीं करता हूँ और नमस्कारके अभाव में अतिशय अभिमानी आपके लिए अवश्य ही बुरा लगेगा। सेठकी बात सुनकर वह तापस इस प्रकार अपना परिचय देने लगा || २७६-२८० ।।
सिंहपुरका राजा था, आर्यवर्मा मेरा नाम था, वीरनन्दी मुनिसे धर्मका स्वरूप सुनकर मैंने निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया था । तदनन्तर धृतिषेण नामक पुत्रके लिए राज्य देकर मैंने संयम धारण कर लिया था - मुनित्रत अंगीकृत कर लिया था परन्तु जठराग्निकी तीव्र बाधासे उत्पन्न
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