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महापुराणे उत्तरपुराणम्
श्रीमानामुक्तिपर्यन्त सुतोऽयमुदितोदितः । निहत्यारातिदुर्वृत्तं मोदं ते जनविष्यति ॥ २३८ ॥ स्वाहि चित्तं समाधेहि योग्यमाहारमाहर । किं वृथानेन शोकेन धिग्देहक्षयकारिणा ॥ २३९ ॥ गत्यन्तरेऽपि ते भर्ता न हि शोकेन लभ्यते । गतयां भिन्नवर्त्मानः कर्मभेदेन देहिनाम् ॥ २४० ॥ इत्यादियुक्तिमद्वाग्भिः संविधाय विशोकिकाम् । पार्श्वे तस्याः स्वयं सास्थात्सतां सौहार्दमीदृशम् ॥ २४१ ॥ तत्र गन्धोत्कटः स्वस्य स्वयं शिशुशवं तदा । गच्छन्निक्षिप्य गम्भीरमाकर्ण्यार्भकसुस्वरम् ॥ २४२ ॥ जीव जीवेति जीवन्धराख्यां वा भाविनीं वदन् । सत्यं मुनिसमादिष्टमिति तुष्टोऽवगम्य तम् ॥ २४३ ॥ करौ प्रसार्य सस्नेहं बालं समुदतिष्ठिपत् । देवी तत्स्वरमाकर्ण्य बुध्वा गन्धोत्कटाह्वयम् ॥ २४४ ॥ अवबोध्य तमात्मानं भद्र त्वं तनयं मम । वर्धयान्यैरविज्ञातमिति तस्मै समर्पयत् ॥ २४५ ॥ सोऽपि तं प्रतिगृवं करोमीति कृतत्वरः । गत्वा गृहं स्वकान्तायै नन्दायै तत्प्रवृत्तकम् ॥ २४६ ॥ किमप्यप्रतिपाद्यास्यै क्रुध्यशिव गतस्मृते । सप्राणसपरीक्ष्यैव भवत्या तदपत्यकम् ॥ २४७ ॥ विसर्जनाय मद्धस्ते निविंचारं समर्पितम् । आयुष्मान्पुण्यवानेष गृहाणेति वितीर्णवान् ॥ २४८ ॥ प्रस्यैच्छत्साsपि सन्तुष्टा कराभ्यां बालभास्करम् । विराजितं पराजित्य बाल लोलत्रिलोचना ॥ २४९ ॥ तस्याम्यदा वणिग्वर्यः कृतमङ्गलसत्क्रियः । अन्नप्राशनपर्यन्ते व्यधाज्जीवन्धराभिधाम् ॥ २५० ॥ अथेत्वा सेन यन्त्रेण तस्मात्सा विजयाह्वया । दण्डकारण्य मध्यस्थं महान्तं तापसाश्रमम् ॥ २५१ ॥ तत्राप्रकाशमेवैषा वसति स्म समाकुलाम् । तां यक्षी समुपागस्य तच्छोकापनुदेच्छया ॥ २५२ ॥
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इसलिए हे विजये ! संसारके स्वरूपका विचारकर शोक मत कर, और अतीत पदार्थोम व्यर्थ ही प्रीति मत कर । तेरा यह पुत्र बहुत ही श्रीमान् है और मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त इसका अभ्युदय निरन्तर बढ़ता ही रहेगा | यह दुराचारी शत्रुको नष्टकर अवश्य ही तुझे आनन्द उत्पन्न करेगा । तू स्नान कर, चित्तको स्थिर कर और योग्य आहार ग्रहण कर । शरीरका क्षय करने वाला यह शोक करना वृथा है, इस शोकको धिक्कार है, शोक करने से इस पर्यायकी बात तो दूर रही, दूसरी पर्यायमें भी तेरा पति तुझे नहीं मिलेगा क्योंकि अपने-अपने कर्मोंमें भेद होनेसे जीवों की गतियाँ भिन्न-भिन्न हुआ करती हैं । इत्यादि युक्ति भरे वचनों से यक्षीने विजया रानीको शोक रहित कर दिया। इतना ही नहीं वह स्वयं रात्रिभर उसके पास ही रही सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंकी मित्रता ऐसी ही होती है। ।। २२६-२४१ ॥ इतनेमें ही गन्धोत्कट सेठ, अपने मृत पुत्रका शव रखनेके लिए वहाँ स्वयँ पहुँचा । शवको रख कर जब जाने लगा तब उसने किसी बालकका गम्भीर शब्द सुना । शब्द सुनते ही उसने " जीव जीव " ऐसे आशीर्वादात्मक शब्द कहे मानो उसने आगे प्रचलित होने वाले उस पुत्रके 'जीवन्धर' इस नामका ही उच्चारण किया हो । मुनिराजने जो कहा था वह सच निकला यह जान कर गन्धोत्कट बहुत ही सन्तुष्ट हुआ । उसने दोनों हाथ फैला कर बड़े स्नेह से उस बालकको उठा लिया। विजया देवीने गन्धोत्कटकी आवाज सुनकर ही उसे पहिचान लिया था । इसलिए उसने अपने आपका परिचय देकर उससे कहा कि हे भद्र, तू मेरे इस पुत्रका इस तरह पालन करना जिस तरह कि किसीको इसका पता न चल सके। यह कह कर उसने वह पुत्र गन्धोत्कटके लिए सौंप दिया ।। २४२-२४५ ॥ सेठ गन्धोत्कटने भी 'मैं ऐसा ही करूंगा' यह कह कर वह पुत्र ले लिया और शीघ्रताके साथ घर आकर अपनी नन्दा नामकी स्त्रीके लिए दे दिया । देते समय उसने
के लिए उक्त समाचार तो कुछ भी नहीं बतलाया परन्तु कुछ कुपित-सा होकर कहा कि हे मूर्खे ! वह चालक जीवित था, तू ने बिना परीक्षा किये ही श्मशान में छोड़ आनेके लिए मेरे हाथमें विचार किये बिना ही रख दिया था । ले, यह बालक चिरजीवी है और पुण्यवान् है, यह कह कर उसने घह पुत्र अपनी स्त्रीके दिया था ।। २४६-२४= ॥ सुनन्दा सेठानीने संतुष्ट हो कर वह बालक दोनों हाथोंसे ले लिया । वह बालक प्रातः कालके सूर्यको पराजित कर सुशोभित हो रहा था और सेठानी की आँखें उसे देख-देख कर सतृष्ण हो रही थीं ।। २४६ ।। किसी एक दिन उस सेठने अनेक माङ्गलिक क्रियाएं कर अन्नप्राशन संस्कारके बाद उस पुत्रका 'जीवन्धर' नाम रक्खा ।। २५० ।। अथानन्तर - विजया रानी उसी गरुड़मन्त्र पर बैठकर दण्डकके मध्य में स्थित तपस्वियों के
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