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महापुराणे उत्तरपुराणम् महीपतिगृहं देवीं वीक्ष्य वीतविभूषणाम् । उपविष्टा क राजेति समपृच्छत्स सादरम् ॥ २०८ ॥ साप्याह सुप्तवान् राजा शक्यो नैव निरीक्षितुम् । इति तद्वचनं सोऽपि दुनिमित्तं विभावयन् ॥ २०९ ॥ ततो निवृत्तः सम्प्राप्य काष्ठाङ्गारिकमन्त्रिणः । भास्करोदयवेलायां गेहं तत्रावलोक्य तम् ॥ २१॥ पापबुद्धिमिथोऽवादीद्राज्यं तव भविष्यति । महीपतिनिहन्तव्यस्त्वयेति तदुदीरितम् ॥ २११॥ श्रत्वा कर्मकरं मन्त्रिपदे मां विन्ययोजयत् । राजायमकृतज्ञो वा कथं वापकरोम्यहम् ॥ २१२॥ रुद्रदरा त्वया प्रज्ञावताप्येतत्सुदुर्नयम् । निरूपितमिति श्रोत्रपिधान सभयो व्यधात् ॥ २१३ ॥ पुरोहितस्तदाकर्ण्य भविष्यत्सूनुरस्य ते । प्राणहारी भवेतन प्रतीकारं ततः कुरु ॥२४॥ इत्येतदभिधायाशु गत्वा तत्पापपाकतः । तृतीयदिवसे व्याधिपीडितो विगतासुकः ॥ २१५॥ रुद्रदत्तोऽगमत्वबाभी गतिं सुचिरदुःखदाम् । काष्ठाङ्गारिकमन्त्री च रुद्रदत्तनिरूपितात् ॥ २१६॥ नृपं स्वमृत्युमाशय प्रजिघांसुर्दुराशयः । द्विसहस्रमहीपालैनभिर्भटोत्कटः॥ २१७ ॥ राजगेहं समुद्दिश्य समद्धगजवाजिभिः । समं समाभियाति स्म तद्विदित्वा महीपतिः ॥ २१८ ॥ देवी गरुडयन्त्रस्थामपसार्य प्रयत्नतः । प्रारुमन्त्रिस्वीकृतारमीयमहीपालैः स्वदर्शनात् ॥ २१९॥ विमुकमन्त्रिभिः साधं ऋध्वा सम्प्राप्य मन्त्रिणम् । युद्धे सद्यः स निर्जित्य भयोन्मार्गमनीनयत् ॥२२०॥ तुकालाङ्गारिकस्तस्य सारे भङ्गवार्तया । सक्रोधो बहुसमद्धबलेन सहसागतः ॥ २२१॥
काष्ठाङ्गारिकपापोऽपि पुनस्तेनैव सजतः । हत्वा युद्धे महीपालं तस्मिन् राज्येऽप्यवस्थितः ॥२२॥ सब जीवोंको सुख देने वाला वसन्तका महीना आ गया। किसी एक दिन अहित करने वाला रुद्रदत्त नामका पुरोहित प्रातःकालके समय राजाके घर गया। वहाँ रानीको आभूषणरहित बैठी देखकर उसने आदरके साथ पूछा कि राजा कहाँ हैं ? ॥ २०७-२०८ ॥ रानीने भी उत्तर दिया कि राजा सोये हए हैं इस समय उनके दर्शन नहीं हो सकते। रानीके इन वचनोंको ही अपशकुन समझता हुआ वह वहाँसे लौट आया और सूर्योदयके समय काष्टाङ्गारिक मन्त्रीके घर जाकर उससे मिला। उस पापबुद्धि पुरोहितने एकान्तमें काष्ठाङ्गारिकसे कहा कि यह राज्य तेरा हो जावेगा तू राजाको मार डाल । पुरोहितकी बात सुनकर काष्ठागारिकने कहा कि मैं तो राजाका नौकर हूं, राजाने ही मुझे मन्त्रीके पदपर नियुक्त किया है । यद्यपि यह राजा अकृतज्ञ है-मेरा किया हुआ उपकार नहीं मानता है तो भी मैं यह अपकार वैसे कर सकता हूँ ? ॥ २०६-२१२ ।। हे रुद्रदत्त ! तू ने बुद्धिमान हो कर भी यह अन्यायकी बात क्यों कही। यह कहकर उसने भयभीत हो अपने कान ढक लिये ॥ २१३ ॥ काष्ठाङ्गारिकके ऐसे वचन सुनकर पुरोहितने कहा कि इस राजाके जो पुत्र होने वाला है वह तेरा प्राणघातक होगा इसलिए इसका प्रतिकार कर ॥२१४ ॥ इतना कह कर रुद्रदत्त शीघ्र ही अपने घर चला गया और इस पापके उदयसे रोगपीड़ित हो तीसरे दिन मर गया तथा चिरकाल तक दुःख देने वाली नरकगतिमें जा पहुंचा। इधर दुष्ट आशयवाले काष्ठागारिक मन्त्रीने सद्रदत्तके कहनेसे अपनी मृत्युकी आशंका कर राजाको मारनेकी इच्छा की। उसने धन देकर दो हजार शूरवीर राजाओंको अपने आधीन कर लिया था। वह उन्हें साथ लेकर युद्ध के लिए तैयार किये हुए हाथियों और घोड़ोंके साथ राज-मन्दिरकी ओर चला। जब राजाको इस बातका पताचला तो उसने शीघ्र ही रानीको गरुडयन्त्र पर बैठाकर प्रयत्न पूर्वक वहाँ से दूर कर दिया । काष्ठाङ्गारिक मन्त्रीने पहले जिन राजाओंको अपने वश कर लिया था उन राजाओंने जब राजा सत्यन्धरको देखा तब वे मन्त्रीको छोड़कर राजाके आधीन हो गये। राजाने उन सब राजाओंके साथ कुपित होकर मन्त्रीपर आक्रमण किया और उसे शीघ्र ही युद्ध में जीतकर भयके मार्गपर पहुँचा दियाभयभीत बना दिया ।। २१५-२२० ॥ इधर काष्ठाङ्गारिकके पुत्र कालाङ्गारिकने जब युद्ध में अपने पिताकी हारका समाचार सुना तब वह बहुत ही कुपित हुआ और युद्ध के लिए तैयार खड़ी बहुत सी सेना लेकर अकस्मात् आ पहुँचा । पापी काष्ठाङ्गाकि भी उसीके साथ मा मिला। अन्त में वह
१ व्यवस्थितः इति कचित् ।
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