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पत्रसप्ततितम पर्व
४६५ निशायाः पत्रिमे यामे स्वमावेतो प्रसबधीः । विलोक्य सा तयोर्शातु फलमभ्येत्य भूपतिम् ॥ १५॥ सप्रश्रयं समीक्ष्यैनमन्वर्युक मदत्यये । अष्टौ लाभानवाप्यान्ते शितेोकारमात्मजम् ॥ १९ ॥ भाप्स्यस्याशु त्वमित्याह महीपाला प्रियाप्रियम् । श्रुत्वा शोकप्रमोदाभ्यां तामाविर्भूतचेतसम् ॥१९५॥ राही राजा समालोक्य सदुकथा समतर्पयत् । सुखेनैवं तयोः काले याति कबिल्समागतः ॥१९॥ देवलोकास्थितिं हेभे देवीगर्भगृहे सुखम् । स पुण्यो राजहंसो वा शारदाम्जसरोवरे ॥ १९॥ अथान्येवर्वणिग्वयों बास्तब्यस्तरपुरान्तरे। धनी गन्धोत्कटो नाम शीलगुप्तमहामनिम् ॥१८॥ मनोहरवनोद्याने ज्ञानत्रयविलोचनम् । विलोक्य विनयात्वा प्राप्राक्षीजगवन्मम ॥ १९९॥ बहवोऽल्पायुषोऽभूवस्तनयाः पापपाकतः । दीर्घायुषो भविष्यन्ति सुता मे किमतः परम् ॥ २०॥ इति सोऽपि दयालुत्वान्मुनीशः प्रत्यभाषत । बाढ समुपलप्स्यन्ते स्वया सुचिरजीविमः ॥२०॥ अभिज्ञानमिदं तम्य सम्पराणु वणिग्वर । उपस्यमान सुत सचो मृतं त्यक्त बन गतः ॥ २०॥ तत्र कबिराज त्वं कप्प्यसे पुण्यभाजनम् । स समस्तां महीं भुक्त्वा तृतो वैषयिक सुखः ॥ २०॥ प्रान्ते विश्वस्य कर्माणि मोक्षलक्ष्मीमवाप्स्यति । इति तद्वचनं श्रुत्वा काचितत्सविधी स्थिता ॥ २० ॥ पक्षी भविष्यतो राजसूनोः पुण्यप्रचोदिता । तस्योत्पत्ती स्वयं मातुरूपकारविधित्सया ॥१.५॥ गत्वा राजकुल वैनतेययन्त्रगताभवत् । प्रायः 'प्राकृतपुण्येन सविधिसन्ति देवताः॥२.६॥ भयागते मपी मासे सर्वसत्त्वसुखावहे । पुरोहितोऽहितोऽन्येचुः प्रातरेव समागतः ॥ ३..॥
राजाने सुवर्णके आठ घंटोंसे सुशाभित अपना मुकुट मेरे लिए दे दिया है और दूसरा स्वप्न देखा कि मैं अशोक वृक्षके नीचे बैठी हूँ परन्तु उस अशोक वृत्तकी जड़ किसीने कुल्हाड़ीसे काट गली है
और उसके स्थानपर एक लोटा अशोकका वृक्ष उत्पन्न हो गया है। स्वप्न देखकर उनका फल जाननेके लिए वह राजाके पास गई ।। १६१-१६३ ।। और बड़ी विनयके साथ राजाके दर्शन कर स्नानोंका फल पूछने लगी। इसके उत्तरमें राजाने कहा कि तू मेरे मरनेके बाद शीघ्र ही ऐसा पुत्र प्राप्त करेगी जो आठ लाभोंको पाकर अन्तमें पृथिवीका भोक्ता होगा। स्वप्नोंका प्रिय और अप्रिय फल सुनकर रानीका चित्र शोक तथा दुःखसे भर गया। उसकी व्यग्रता देख राजाने उ शब्दोसे संतुष्ट कर दिया। तदनन्तर दोनोंका काल सुखसे व्यतीत होने लगा। इसके बाद किसी पुण्यात्मा देवका जीव स्वर्गसे च्युत होकर रानीके गर्भरूपी गृहमें पाया और इस प्रकार सुखसे रहने लगा जिस प्रकार कि शरदऋतुके कमलोंके सरोवरमें राजहंस रहता है ।। १९४-१९७ ॥
अथानन्तर किसी दूसरे दिन उसी नगर में रहनेवाले गन्धोत्कट नामके धनी सेठने मनोहर नामक उद्यानमें तीन ज्ञानके धारी शीलगुप्त नामक मुनिराजके दर्शनकर विनयसे उन्हें नमस्कार किया और पूछा कि हे भगवन् ! पाप कर्मके उदयसे मेरे बहुतसे अल्पायु पुत्र हुए हैं क्या कभी दीर्घायु पुत्र भी होंगे ? ॥ १६८-२००। इस प्रकार पूछनेपर दयालुतावश मुनिराजने कहा कि हाँ तुम भी चिरजीवी पुत्र प्राप्त करोगे ॥ २०१ ।। हे वैश्य वर ! चिरजीव पुत्र प्राप्त होनेका चिह यह है, इसे तु अच्छी तरह सुर तथा जो पुत्र तुझे प्राप्त होगा यह भी सुन। तरे एक मृत पुत्र होगा उसे छोड़नेके लिए तू वनमें जायगा । वहाँ तू किसी पुण्यात्मा पुत्रको पावेगा। वह पुत्र समस्त पृथिवीका उपभोगकर विषय सम्बन्धी सुखोंसे संतुष्ट होगा और अन्तमें समस्त कर्मोको नष्टकर मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करेगा। जिस समय उक्त मुनिराज गन्धोत्कट सेठसे ऊपर लिखे वचन कह रहे थे उस समय वहाँ एक पक्षी भी बैठी थी। सुनिराजके वचन सुनकर पक्षीके मनमें होन हार राजपुत्रकी माताका उपकार करनेकी इच्छा हुई। निदान, जब राजपुत्रकी उत्पत्तिका समय आया तब वह यक्षी उसके पुण्यसे प्रेरित होकर राजालमें गई और एक गरुड यन्त्रका रूप बनाकर पहुँची। सो ठीक ही है क्योंकि पूर्वकृत पुण्यके प्रभावसे प्रायः देवता भी समीप आ जाते हैं॥२०१-२०६॥ तदनन्तर
१ प्रकृत ख
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