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महापुराणे उत्तरपुराणम् एवं बन्धविधानोक्तमिथ्याभावादिपञ्चकात् । सञ्चितैः कर्मभिः प्राप्य द्रव्यादिपरिवर्तनम् ॥ १७८ ॥ संसारे पञ्चधा प्रोक्त दुःखान्मुग्राण्यनारतम् । प्रामवन्तः कृतान्तास्ये हन्त सीदन्ति जन्तवः ॥ १७९ ॥ स एव लब्धकालादिसाधना मुक्तिसाधनम् । सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोरूपमनुत्तरम् ॥ १८ ॥ अभ्येत्य पुण्यकर्माणः परमस्थानसप्तके । सम्प्राप्तपरमैश्वर्या भवन्ति सुखभागिनः ॥१८॥ इति तगौतमाधीशश्रीमद्ध्वनिरसायनात् । सभा सर्वा बभूवासौ तदैवेबाजरामरा ॥१८२॥ भन्यदाऽसौ महाराजः श्रेणिकाख्यः परिश्रमन् । प्रीत्या गन्धकुटीबाह्यभास्वद्वनचतुष्टये ॥ १३॥ स्थितं पिण्डीवमस्याधो जीवन्धरमुनीश्वरम् । ध्यानारूढ़ विलोक्यैतद्रूपादिषु विषक्तधीः ॥ १८४ ॥ सकौतुकः समभ्यस्य सुधर्मगणनायकम् । भाक्तिकोऽभ्यय॑ वन्दित्वा यथास्थान निविश्य तम् ॥ १८५॥ प्राणलिभंगवशेष यतीन्द्रः सर्वकर्मणा ।भुक्तो वाचैव को वेति पप्रच्छ प्रश्रयाश्रयः ॥ १८६॥ अवबोधचतुष्कारमा सोप्येवं समभाषत । खेदो न हि सतां वृत्तेर्वक्तुः श्रोतुश्च चेतसः ॥ १८७ ॥ ऋणु श्रेणिक जम्बूभुजविभूषितभूतले । अत्र हेमाङ्गदे देशे राजन् राजपुराधिपः ॥ १८८॥
राजेव रजिताशेषः सत्यन्धरमहीपतिः । विजयास्य महादेवी विजयश्रीरिवापरा ॥ १८९ ॥ सर्वकर्मचणोऽमात्यः काष्ठाङ्गारिकनामभृत् । हन्ता दैवोपघाताना रुद्रदराः पुरोहितः ॥ १९ ॥ कदाचिद्विजया देवी सुप्ता गर्भगृहे सुखम् । मुकुट भूभुजा हेमघण्टाष्टकविराजितम् ॥ १९॥ दरां स्वस्यै श्रिताशोकतरोर्मूलन केनचित् । छिन्नं परशुना जातं पुनर्वालमहीरुहम् ॥ १९२ ॥
अवश्य ही परमात्मपद-मोक्षपद प्राप्त करेगी ।। १७७ ।। इस प्रकार वन्धके साधनोंमें जो मिथ्यादर्शन आदि पाँच प्रकारके भाव कहे गये हैं उनके निमित्तसे संचित हुए कर्मों के द्वारा ये जीव द्रव्य क्षेत्र आदि परिवर्तनोंको प्राप्त होते रहते हैं। ये पाँच प्रकारके परिवर्तन ही संसारमें सबसे भयंकर दुःख हैं। खेदकी बात है. कि ये प्राणी निरन्तर इन्हीं पश्च प्रकारके दुःखोंको पाते हुए यमराजके मुंहमें जा पड़ते हैं ।। १७८-१७६ ।। फिर ये ही जीव, काललब्धि आदिका नि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप रूप मोक्षके उत्कृष्ट साधन पाकर पुण्य कर्म करते हुए सात परमस्थानोंमें परम ऐश्वर्यको प्राप्त होते हैं और यथा क्रमसे अनन्त सुखके भाजन होते हैं॥१८०-१८१ ।। इस प्रकार वह सब सभा गौतम स्वामीकी पुण्य रूपी लक्ष्मीसे युक्त ध्वनि रूपी रसायनसे उसी समय अजर-अमरक समान हो गई ।। १८२॥
अथानन्तर-किसी दूसरे दिन महाराज श्रेणिक गन्धकुटीके बाहर देदीप्यभान चारों वनोंमें बड़े प्रेमसे घूम रहे थे। वहीं पर एक अशोक वृक्षके नीचे जीवन्धर मुनिराज ध्यानारूढ हो कर विराजमान थे। महाराज श्रेणिक उन्हें देखकर उनके रूप आदिमें आसक्तचित्त हो गये और कौतकके साथ भीतर जाकर उन्होंने सुधमें गणधरदेवकी बड़ी भक्तिले पूजा बन्दना की तथा यथायो स्थानपर बैठ हाथ जोड़कर बड़ी विनयसे उनसे पूछा कि हे भगवन् ! जो मानो आज ही समस्त कर्मोसे मुक्त हो जावेंगे ऐसे ये मुनिराज कौन ?।। १८३-१८६ ।। इसके उत्तरमें चार ज्ञानके धारक सुधर्माचार्य निम्न प्रकार कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंके चरित्रको कहने वाले
और सुनने वाले दोनोंके ही चित्त में खेद नहीं होता है ।। १८७ ।। वे कहने लगे कि हे श्रेणिक ! सुन, इसी जम्बू वृक्षते सुशोभित होने वाली पृथिवीपर एक हेमाङ्गद नामका देश है और उसमें राजपुर नामका एक शोभायमान नगर है। उसमें चन्द्रमाके समान सबको आनन्दित्त करने वाला सत्यन्धर नामका राजा था और दूसरी विजयलक्ष्मीके समान विजया नामकी उसकी रानी थी॥१८८-१८६॥ उसी राजाके सब कामों में निपुण काष्ठाङ्गारिक नामका मन्त्री था और दैवजन्य उपद्रवोंको नष्ट करने बाला रुद्रदत्त नामका पुरोहित था ॥ १६०॥ किसी एक दिन विजया रानी घरके भीतर सुख रही थी वहाँ उसने बड़ी प्रसन्नतासे रात्रिके पिछले पहर में दो स्वप्न देखे। पहला स्वप्न देखा कि
एवं ल०। २ सर्पकर्मभिः ल.।चन्द्र इव । 'राजा प्रभौ नृपे चन्द्रे यक्षे चत्रियशक्रयो।' इति कोशः। ४ भक्ता ल०।
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