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पञ्चसप्ततितम पर्व
४६३
काले गच्छति जीवान्ते सन्न्यासविधिमाश्रितः। श्रीनागदत्तः सौधर्मकल्पेऽनल्पामरोऽभवत् ॥ १६२ ॥ तन्त्र निर्विष्टदिब्योहभोगश्च्युत्वा ततोऽजनि । द्वीपेऽस्मिन् भारते खेचराचले नगरे बरे ॥१६॥ शिवकरे तदीशस्य विद्याधरधरेशिनः । सुतः पवमवेगस्य सुवेगायां सुखावहः ॥ १६४ ॥ मनोवेगोऽन्यजन्मोद्यत्स्नेहेन विवशीकृतः । अनैषीचन्दनामेनामतिस्नेहोऽपर्थ नयेत् ॥ १६५॥ स एषोऽभ्यर्गभव्यत्वादमुष्मिन्नेव जन्मनि । जिनाकृतिं समादाय सम्प्राप्स्यत्यग्रिमं पदम् ॥ १६६॥ ततः श्रीनागदत्तस्य नाकलोकास्कनीयसी। इहागस्याभवनाना मनोवेगा महायुतिः ॥ १६ ॥ पलाशनगरे नागदाहस्तमृतः खगः । सुरलोकादभूः सोमवंशे त्वं चेटको नृपः ॥ १६८॥ माता श्रीनागदत्तस्य धनमित्रा दिवङ्गता । ततश्च्युत्वा तवैवासीसुभद्रेयं मनःप्रिया ॥ १६९ ॥ यासौ पन्नलता सापि कृतोपवसना दिवम् । गत्वागत्य जनिष्टेयं चन्दना नन्दना तव ॥ १७ ॥ नकुलः संसृतौ भान्स्वा सिंहाख्योऽभूद्धनेचरः। प्राग्जन्मनेहवैराभ्यामबाधिष्ट स चन्दनाम् ॥ ११॥ सहदेवोऽपि सम्भ्रम्य संसारे सुचिरं पुनः । कौशाम्ब्यां वैश्यतुग्भूत्वा मित्रवीराह्वयः सुधीः ॥ १७२ ॥ भृत्यो वृषभसेनस्य चन्दना स समर्पयत् । पिता श्रीनागदत्तस्य धनदेवो वणिग्वरः ॥ १७३॥ स्वर्लोकं शान्तचित्तेन गत्वैत्य श्रेष्ठिताङ्गतः । श्रीमान्वृषभसेनाख्यः कौशाम्ब्यां कलितो गुणैः ॥ १७४ ॥ सोमिलायां' कृतद्वेषा चित्रसेना चतुर्गतिम् । परिश्रम्य चिरं शान्त्वा मनाक तत्रैव विट्सुता ॥ १७५ ॥ भूत्वा वृषभसेनस्य पत्नी भद्राभिधाऽभवत् । निदानकृतवैरेण न्यगृह्वाचन्दनामसौ ॥ १७६ ॥ चन्दनैषाच्युतात्कल्पात्प्रत्यागत्य शुभोदयात् । द्वितीयवेदं सम्प्राप्य पारमात्म्यमवाप्स्यति ॥ १७७ ॥
हो गई और दान पूजा आदि उत्तम कार्योंसे सबका समय व्यतीत होने लगा। आयुके अन्तमें नागदत्तने संन्यास पूर्वक प्राण छोड़े जिससे वह सौधर्म स्वर्गमें बड़ा देव हुआ ।। १६१-१६२ ॥ स्वर्गके श्रेष्ठ भोगोंका उपभोगकर वह वहाँसे च्युत हुआ और इसी भरतक्षेत्रके विजया पर्वत पर शिवकर नगरमें विद्याधरोंके स्वामी राजा पवनवेगकी रानी सुवेगासे यह अत्यन्त सुखी मनोवेग नामका पुत्र हुआ है। दूसरे जन्मके बढ़ते हुए स्नेहसे विवश होकर ही इसने चन्दनाका हरण किया था सो ठीक ही है क्योंकि भारी स्नेह कुमागेमें ले ही जाता है ॥ १६३-१६५ ॥ यह निकटभव्य है और इसी जन्ममें दिगम्बर मुद्रा धारणकर मोक्ष पद प्राप्त करेगा ॥ १६६॥ नागदत्तकी छोटी बहिन अर्थस्वामिनी स्वर्गलोकले आकर यहाँ महाकान्तिको धारण करने वाली मनोवेग । १६७॥ जो विद्याधर पलाशनगरमें नागदत्तके हाथसे मारा गया था वह स्वर्गसे आकर तू सोमवंशमें राजा चेटक हुआ है ॥१६८ ।। धनमित्रा नामकी जो नागदत्तकी माता थी वह स्वर्ग गई थी और वहाँ से च्युत होकर मनको प्रिय लगनेवाली वह तेरी सुभद्रा रानी हुई है ॥ १६६ ।। जो नागदत्तकी स्त्री पद्मलता थी वह अनेक उपवासकर स्वगे गई थी और वहाँ से आकर यह चन्दना नामकी तेरी पुत्री हुई है ॥ १७० ॥ नकुल संसारमें भ्रमणकर सिंह नामका भील हुआ है उसने पूर्व जन्मके स्नेह और वेरके कारण ही चन्दनाको तंग किया था ॥ १७१ ।। सहदेव भी संसारमें चिरकाल तक भ्रमणकर कौशाम्बी नगरीमें मित्रवीर नामका बुद्धिमान् वैश्यपुत्र हुआ है जो कि वृषभसेनका सेवक है और उसीने यह चन्दना वृषभसेन सेठके लिए समर्पित की थी । नागदत्तका पिता सेठ धनदेव शान्तचित्तसे मरकर स्वर्ग गया था और वहाँ से आकर कौशाम्बी नगरीमें अनेक गुणोंसे युक्त श्रीमान् वृषभसेन नामका सेठ हुआ है ॥ १७२-१७४ ॥ चित्रसेनाने सोमिलासे द्वेष किया था इसलिए वह चिरकालतक संसारमें भ्रमण करती रही। तदनन्तर कुछ शान्त हुई तो कौशाम्बी नगरीमें वैश्यपुत्री हुई और भद्रा नामसे प्रसिद्ध होकर वृषभसेनकी पत्नी हुई है। निदानके समय जो उसने वैर किया था उसीसे उसने चन्दनाका निग्रह किया था-उसे कष्ट दिया था ॥ १७५-१७६ ॥ यह चन्दना अच्युत स्वर्ग जायगी और वहाँ से वापिस आकर शुभ कर्मके उदयसे पुंवेदको पाकर
१ सोमिलायाः ख०।
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