________________
महापुराणे उत्तरपुराणम् तेभ्यो नाना मुदा दत्वा यूयमागमनं मम । ददध्वं सन्निवेचैतां कन्यायै रत्नमुद्रिकाम् ॥ १४८ ॥ इत्युक्त्वा स्वयमित्वानु शीलदत्तगुरुं मिथः । वन्दित्वा रक्षिसूनुश्च दृष्ट्वा सन्मित्रमात्मनः ॥१४९ ॥ आमूलात्कार्यमाख्याय सह तेन ततो गतः । साररत्नैर्महीपालं सानुराग व्यलोकत ॥ १५ ॥ दृष्टा भवानहो नागदत्त कस्मात्समागतः । क वा गतं त्वयेत्येष तुष्टः पृष्टो महीभुजा ॥ १५ ॥ भागयाचनयात्रादि सर्वमामूलतोऽब्रवीत् । तदाकर्ण्य नृपः ऋध्वा प्रवृत्तः श्रेष्ठिनिग्रहे ॥ १५२ ॥ न युक्तमिति निर्बन्धानागदत्तेन वारितः । दत्वा श्रीष्ठिपदं तस्मै सारवित्तसमन्वितम् ॥ १५३ ॥ विवाहविधिना पद्मलतामपि समर्पयत् । अथात्मसंसदि व्यक्तमवनीन्द्रोऽभ्यधादिदम् ॥ १५ ॥ पश्य पुण्यस्य माहात्म्यं राक्षसाधन्तरायतः । व्यपेत्यायं महारत्नान्यात्मीकृत्यागतः सुखम् ॥ १५५ ॥ पुण्याजलायते वह्निविंषमप्यमृतायते । मित्रायन्ते द्विषः पुण्यात्पुण्याच्छाम्यन्ति भीतयः॥ १५६ ॥ दुविंधाः सधनाः पुण्यात पुण्यात्स्वर्गश्च लभ्यते । तस्मात्पुण्यं विचिन्वन्तु' हतापत्सम्पदेषिणः ॥ १५७ ॥ जिनोकधर्मशास्त्रानुयानेन विहितक्रियाः । इति सभ्याश्च तद्वाक्यं बहवश्चेतसि व्यधुः ॥ १५८ ॥ अथ श्रीनागदत्तोऽपि सजातानुशयं तदा । क्षमस्व मे कुमारेति प्रणमन्तं सपुत्रकम् ॥ १५९ ॥ सभायं श्रीष्ठिनं मैवमित्युत्थाप्य प्रियोक्तिभिः । सन्तोष्य जिमपूजाश्च प्राक्प्रोक्तामकरोत्कृती ॥ १६० ॥ एवं श्रावकसद्धर्ममधिगम्य परस्परम् । जातसौहार्दचित्तानां दानपूजादिकर्मभिः ॥ १६ ॥
लोग आज अत्यन्त व्याकुलचित्त हो रहे हैं। उनकी बात सुनकर नागदत्तने अपने रत्नोंके समूहमेंसे निकालकर अच्छे-अच्छे अनेक रत्न प्रसन्नतासे उन्हें दिये और साथ ही यह कहकर एक रत्नमयी अंगूठी भी दी कि तुम मेरे आनेकी खबर देकर उस कन्याके लिए यह अंगूठी दे देना! यही नहीं, नागदत्त, स्वयं भी उनके साथ गया। वहाँ जाकर उसने पहले शीलदत्त मुनिराजकी वन्दना की। तदनन्तर अपने मित्र कोतवालके पुत्र दृढरक्षके पास पहुँचा। वहाँ उसने प्रारम्भसे लेकर सब कथा दृढरक्षको कह सुनाई। फिर उसीके साथ जाकर अच्छे-अच्छे रत्नोंकी भेंट देकर बड़ी प्रसन्नतासे राजाके दर्शन किये ॥१४५-१५० ॥ उसे देखकर महाराजने पूछा कि अहो नागदत्त ! तुम कहाँ से
आ रहे हो और कहाँ चले गये थे ? राजाकी बात सुनकर नागदत्त बड़ा संतुष्ट हुआ। उसने अपना हिस्सा मांगने और उसके लिए यात्रा करने आदिके सब समचार आदिसे लेकर अन्ततक कह सुनाये। उन्हें सुनकर राजा बहुत ही कुपित हुआ और सेठका निग्रह करनेके लिए तैयार हो गया परन्तु ऐसा करना उचित नहीं है यह कह कर अाग्रहपूर्वक नागदत्तने राजाको मना कर दिया । राजाने बहुत-सा अच्छा धन देकर नागदत्तको सेठका पद दिया और विधिपूर्वक विवाहकर वह पद्मलता कन्या भी उसे सौंप दी। तदनन्तर राजाने अपनी सभामें स्पष्ट रूपसे कहा कि देखो, पुण्यका कैसा माहात्म्य है ? यह नागदत्त राक्षस आदि अनेक विघ्नोंसे बचकर और श्रेष्ठ रनोंको अपने आधीन कर सुखपूर्वक यहाँ आ गया है ॥१५१-१५५ ।। इसलिए कहना पड़ता है कि पुण्यसे अमि जल हो जाती है, पुण्यसे विष भी अमृत हो जाता है, पुण्यसे शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, पुण्यसे सब प्रकारके भय शान्त हो जाते हैं, पुण्यसे निर्धन मनुष्य भी धनवान हो जाते हैं और पुण्यसे स्वर्ग भी प्राप्त होता है इसलिए आपत्तिरहित सम्पदाकी इच्छा करने वाले पुरुषोंको श्रीजिनेन्द्रदेवके कहे हुए धर्मशास्त्र के अनुसार सब क्रियाएं कर पुण्यका बन्ध करना चाहिये ! राजाका यह उपदेश सभाके सब लोगोंने अपने हृदयमें धारण किया ।। १५६-१५८॥ तदनन्तर सेठको भी बहुत पश्चात्ताप हुआ वह उसी समय 'हे कुमार! क्षमा करो' यह कहकर अपने अन्य पुत्रों तथा श्री सहित प्रणाम करने लगा परन्तु नागदत्तने उसे ऐसा नहीं करने दिया और उठाकर प्रिय वचनोंसे उसे सन्तुष्ट कर दिया। तदनन्तर उस बुद्धिमान्ने यात्राके पहले कही हुई जिनेन्द्र भगवानकी पूजा की ॥ १५६-१६० ॥ इस प्रकार सबने श्रावकका उत्तमधर्म स्वीकृत किया, सबके हृदयोंमें परस्पर मित्रता
१ दुरुजः ल० । २ निबध्रन्तु खः । ३ स्वपुत्रकम ख•।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org