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पञ्चसप्ततितमं पर्व
तत्रैवारक्षिपुत्रेण दृढरक्षेण संगतिम् । कृत्वा तत्पुरशिष्टानां शास्त्रव्याख्यानकर्मणा ॥ १०३॥ उपाध्यायत्वमध्यास्य तत्राप्तवसुना निजाम्। जननीं स्वस्वसारश्च स्वयञ्च परिपोषयन् ॥ १०४ ॥ स्वमातुलानीपुत्राय नन्दिग्रामनिवासिने । कुलवाणिजनान्ने स्वामनुजामदितादरात् ॥ १०५ ॥ स कदाचिदुपश्लोक पूर्वकं क्षितिनायकम् । विलोक्य तत्प्रसादास सम्मानधनसम्मदः ॥ १०६ ॥ कृतमातृपरिप्रश्नः पितुरागत्य सन्निधिम् । प्रणमत्तत्पदाम्भोजं धनदेवः समीक्ष्य तम् ॥ १०७ ॥ जीव पुत्रात्र तिष्ठेति प्रियैः प्रीणयति स्म सः । सोऽपि रत्नादितद्वस्तुभागं देहीत्ययाचत ॥ १०८ ॥ पिता तु पुत्र मद्वस्तु पलाशद्वीपमध्यगे । स्थितं पुरे पलाशाख्ये तस्वयानीय गृह्यताम् ॥ १०९ ॥ इत्याख्यन्नकुलेनामा भ्रात्रा दायादकेन सः । सहदेवेन चाप्तेष्टसिद्धिर्यदि भवेदहम् ॥ ११० ॥ प्रत्यागत्य करिष्यामि पुजां जैनेश्वरीमिति । आशास्यानु जिनानुत्वा कृतात्मगुरुवन्दनः ॥ १११ ॥ आरुह्य नावमम्भोधिमवगाह्य व्रजन् द्रुतम् । पलाशपुरमासाद्य तत्र स्थापितपोतकः ॥ ११२ ॥ पुरं "विनरसञ्चारं किमेतदिति विस्मयात् । ततः प्रसारितायामिरज्जुभिस्तदवाप्तवान् ॥ ११३ ॥ प्रविश्य तत्पुरं तत्र कन्यामेकाकिनीं स्थिताम् । एकनालोक्य तामाह वदैतनगरं कुतः ॥ ११४ ॥ जातमीदृक्स्वयं का वेत्यादरात्साब्रवीदलम् । प्रागेत नगरेशस्य दायादः कोऽपि कोपतः ६ ॥ ११५ ॥ सिद्धराक्षसविद्यत्वात्सम्प्राप्तो राक्षसाभिधाम् । पुरं पुराधिनाथञ्च स निर्मूलं व्यनीनशत् ॥ ११६ ॥ तद्वंशजेन केनापि समन्त्रं साधितासिना । कृतरक्षं तदैवैतत्स्थापितं नगरं पुनः ॥ ११७ ॥
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मनुष्यों के हृदयों में आह्लाद उत्पन्न कर देता था ।। १०२ ।। वहाँ के कोटपालके पुत्र दृढरक्षके साथ मित्रताकर उसने उस नगरके शिष्ट मनुष्योंको शास्त्रोंकी व्याख्या सुनाई जिससे उपाध्याय पद प्राप्तकर बहुत-सा धन कमाया तथा अपनी माता, बहिन और अपने आपको पोषण किया ।। १०३ - १०४ ॥ नन्दी नामक गाँव में रहने वाले कुलवाणिज नामके अपनी मामीके पुत्रके साथ उसने बड़े आदर से अपनी छोटी बहिनका विवाह कर दिया ।। १०५ ।। किसी एक दिन उसने बहुत से श्लोक सुनाकर राजाके दर्शन किये और राजाकी प्रसन्नतासे बहुत भारी सम्मान, धन तथा हर्ष प्राप्त किया ॥ १०६ ॥ किसी एक दिन माता से पूछकर वह अपने पिताके पास आया और उनके चरण-कमलोंको प्रणामकर खड़ा हो गया । सेठ धनदेवने उसे देखकर 'हे पुत्र चिरंजीव रहो, यहाँ बैठो' इत्यादि प्रिय वचन कहकर उसे सन्तुष्ट किया । तदनन्तर नागदत्तने अपने भागकी रत्नादि वस्तुएं माँगी ।। १०७ - १०८ ।। इसके उत्तर में पिता ने कहा कि 'हे पुत्र मेरी सब वस्तुएं पलाशद्वीपके मध्य में स्थित पलाश नामक नगरमें रखी हैं सो तू लाकर ले ले' । पिताके ऐसा कहनेपर वह अपने हिस्सेदार नकुल और सहदेव नामक भाइयोंके साथ नावपर बैठकर समुद्रके भीतर चला । चलते समय उसने यह आकांक्षा प्रकट की कि यदि मेरी इष्टसिद्धि हो गई तो मैं लौटकर जिनेन्द्रदेवकी पूजा करूँगा । ऐसी इच्छाकर उसने बार-बार जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति की और पिताको नमस्कारकर चला । वह चलकर शीघ्र ही पलाशपुर नगर में जा पहुँचा । वहाँ उसने अपना जहाज खड़ाकर देखा कि यह नगर मनुष्यों के संचारसे रहित है । यह देख वह आश्चर्य करने लगा कि यह नगर ऐसा क्यों है ? तदनन्तर लम्बी रस्सी फेंककर उनके आशय से वह उस नगर के भीतर पहुँचा ।। १०६ - ११३ ॥ नगरके भीतर प्रवेशकर उसने एक जगह अकेली बैठी हुई एक कन्याको देखा और उससे पूछा कि यह नगर ऐसा क्यों हो गया है ? तथा तू स्वयं कौन है ? सो कह । इसके उत्तर में वह कन्या आदर के साथ कहने लगी कि 'पहले इस नगरके स्वामीका कोई भागीदार था जो अत्यन्त क्रोधी था और राक्षस विद्या सिद्ध होनेके कारण 'राक्षस' इस नामको ही प्राप्त हो गया था । उसीने क्रोधवश नगरको और नगरके राजाको समूल नष्ट कर दिया था । तदनन्तर उसके वंशमें होने वाले किसी पुरुषने मन्त्रपूर्वक तलवार सिद्ध की थी और उसी तलवार के प्रभावसे उसने इस नगरको सुरक्षित कर फिरसे १ परितोषयन् ख०, म० । २ स्थिते ल० । ३ नत्वा ख० म० । ४ वन्दनम् म० । ५ बिगतसखारं ल० । ६ कोपनः ल० ।
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