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महापुराणे उत्तरपुराणम् तयोविरुद्धचारित्वादप्रियावावयोरपि । यात देशान्तर नात्र स्थावग्यमिति जल्पिती ॥ ८ ॥ तदैवाकरता तोच प्रत्यन्तनगरे स्थितिम् । विहरन्तावथान्येयरुचाने मुनिपुङ्गवम् ॥ ८९ ॥ मुनिगुप्ताभिधं वीक्ष्य भक्तया भिक्षागवेषिणम् । प्रत्युत्थाय परीत्याभिवन्द्याभ्यय॑ यथाविधि ॥ १० ॥ स्वोपयोगनिमित्तानि तानि खाद्यानि मोदतः । स्वादूनि लड्डुकादीनि दत्वा तस्मै तपोभृते ॥ ९ ॥ नवभेदं जिनोद्दिष्टमष्टं स्वेष्टमापतुः । वनेऽन्यदा कुमारोऽसौ मधुमासे विषाहिना ॥ १२ ॥ दष्टो नष्टासुको जातो दृष्वा तं देहमात्रकम् । तस्यासिधेनुना सापि विधाय स्वां गतासुकाम् ॥ १३ ॥ अगात्तदनुमार्गेण तमन्वेष्टुमिव प्रिया । परां काष्ठामवासस्य भवेदि गतिरीहशी ॥ ९॥ अस्मिमेवोजयिन्याख्यमवन्तिविषये पुरम् । प्रजापतिमहाराजः पालकस्तस्य हेलया ।। ९५॥ तत्रैव धनदेवाख्यश्रेष्ठी तद्गहिनी सती । धनमित्रा तयोः सूनुर्नागदपो महाबलः ॥ ९६ ॥ तनूजा चानुजास्यासीदर्थस्वामिन्यभिख्यया। पलाशद्वीपमध्यस्थपलाशनगरेशिनः ॥ १७ ॥ महाबलमहीशस्य कनकादिलताऽभवत् । काञ्चनादिलतायाश्च ख्याता पन्नलता सुता ॥ ९८॥ उपयम्यापरां श्रेष्ठी श्रेष्ठिनी विससर्ज ताम् । सापि देशान्तरंगत्वा ससुता जातसंविदा ॥ ९९ ॥ शीलदत्तगुरोः पार्श्वे गृहीतश्रावकवता । सूनुमप्यर्पयामास शास्त्राभ्यासनिमिततः ॥१०॥ सोऽपि कालान्तरे बुद्धिनौनिस्तीर्णश्रताम्बुधिः । सत्कविश्च स्वयम्भूत्वा शास्त्रव्याख्यातसयशाः ॥१.१॥
नानालङ्काररम्योक्तिसुप्रसन्मसुभाषितैः । विशिष्टजनचेतस्सु प्रह्लादमुदपादयत् ॥ १०२॥ ही लज्जित हुए और कान्तपुर नगरको चले गये। उन्हें देख, महाबलके माता-पिताने बड़े शोकसे कहा कि चकितम दोनों विरुद्ध आचरण करने वाले हो अतःहम लोगोंको अच्छे नहीं लगते। अब तुम किसी दूसरे देशमें चले जाओ यहाँ मत रहो। माता-पिताके ऐसा कहनेपर वे उसी समय वहाँ से चले गये और प्रत्यन्तनगरमें जाकर रहने लगे। किसी एक दिन वे दोनों उद्यानमें विहार कर रहे थे कि उनकी दृष्टि मुनिगुप्त नामक मुनिराजपर पड़ी। वे मुनिराज भिक्षाकी तलाशमें थे। महाबल और कनकलताने भक्तिपूर्वक उनके दर्शन किये, उठकर प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया और विधिपूर्वक पूजा की। तदनन्तर उन दोनोंने अपने उपयोगके लिए तैयार किये हुए लड्डू आदि मिष्ट खाद्य पदार्थ, हर्ष पूर्वक उन मुनिराजके लिए दिये जिससे उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा हुआ इच्छित नव प्रकारका पुण्य संचित किया। किसी एक दिन महाबल कुमार मधुमासचैत्रमासमें वनमें घूम रहा था वहाँ एक विषैले साँपने उसे काट खाया जिससे वह शीघ्र ही मर गया। पतिको शरीर मात्र (मृत) देखकर उसकी स्त्री कनकलताने उसीकी तलवारसे आत्मघात कर लिया मानो उसे खोजनेके लिए उसीकी पीछे ही चल पड़ी हो। आचार्य कहते हैं कि जो नह अन्तिम सीमाको प्राप्त हो जाता है उसकी ऐसी ही दशा होती है।८७-९४॥
___इसी भरत क्षेत्रके अवन्ति देशमें एक उजयिनी नामका नगर है। प्रजापति महाराज उसका अनायास ही पालन करते थे॥६५॥ उसी नगरमें धनदेव नामका एक सेठ रहता था। उसकी धनमित्रा नामकी पतिव्रता सेठानी थी। महाबलका जीव उन दोनोंके नागदत्त नामका पुत्र हुआ
हवाइन्हीं दोनोंके अर्थस्वामिनी नामकी एक पुत्री थी जो कि नागदत्तकी छोटी बहिन थी। पलाश द्वीपके मध्यमें स्थित पलाश नगरमें राजा महाबल राज्य करता था। कनकलता, इसी महाबल राजाकी काश्चनलता नामकी रानीसे पद्मलता नामकी प्रसिद्ध पुत्री हुई।६७-६८॥ किसी एक समय उज्जयिनी नगरीके सेठ धनदेवने दूसरी स्त्रीके साथ विवाहकर पहिली स्त्री धनमित्राको छोड़ दिया इसलिए वह अपने पुत्रसहित देशान्तर चली गई । एकासमय ज्ञान उत्पन्न होनेपर उसने शीलदत्त गुरुके पास श्रावकके व्रत ग्रहण किये और शास्त्रोंका अभ्यास करनेके लिए अपना पुत्र उन्हीं निराजको सौंप दिया ॥-१००॥ समय पाकर वह पुत्र भी अपनी बुद्धिरूपी नौकाके द्वारा शास्त्र रूपी समुद्रको पार कर गया। वह उत्तम कवि हुआ और शास्त्रोंकी व्याख्यासे सुयश प्राप्त करने लगा॥१०१॥ वह नाना अलंकारोंसे मनोहर वचनों तथा प्रसादगुण पूर्ण सुभाषितोंसे विशिष्ट
१ श्रुताम्बुधेः (?) ल.।
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