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पञ्चसप्ततितमं पव
शिवभूतेरभूद्भायां सोमिला सोमशर्मणः । सुना देवशमांण्यश्चित्रसेनास्य च प्रिया ॥ ७३ ॥ अग्निभूतौ गतप्राणे तनृजस्तत्पदेऽभवत् । विधवा चित्रसेनापि पाप्यत्वं सह सूनुभिः ॥ ७४ ॥ शिवभूतेः समापन्ना देवस्य कुटिला गतिः । सोमिला चित्रसेनायास्तत्सुतानां च पोषणम् ॥ ७५ ॥ पापिष्टाऽसहमानाऽसौ तर्जिता शिवभूतिना । कुध्वा जीवत्यमा चित्रसेनयायं स चेत्यसत् ॥ ७६ ॥ अकरोहूषणं धिग्धिङ्नाकार्यं नाम योषिताम् । चित्रसेनापि मामेवा स्पैवापयन्मृषा ॥ ७७ ॥ निग्रहीष्यामि मृत्वेनां निदानमकरोदिति । अन्यदामन्त्रणे पूर्व शिवगुसमुनीश्वरम् ॥ ७८ ॥ सांमिलाभोजयतस्यै शिवभूतिः स्म कुप्यति । तपोधनमाहात्म्यकथनेन तथा पतिः ॥ ७९ ॥ प्रसादितस्ततः साधु तद्दानं सोऽन्वमन्य॒त । स कालान्तरमाश्रित्य लोकान्तरगतः सुतः ॥ ८८ ॥ जातोत्र विषये व कान्ते कान्तपुरेशिनः । सुवर्णवर्मणां विद्युलेग्वायाश्च महाबलः ॥ ८१ ॥ देशेऽङ्गेऽत्रैत्र चस्पायां श्रीषेणाख्य महीपतेः । सुवर्णवर्मसोदयां धनश्रीः प्रेमदायिनी ॥ ८२ ॥ सोमिला भूतयोः पुत्री कनकादिलनाभिधा । महाबलकुमाराय दानव्येयमिति स्वयम् ॥ ८३ ॥ जन्मन्येवाभ्युपेतैया मात्रा पित्रा च सम्मदात् । वर्धमानः पुरे तस्मिन्नेव बालिकया समम् ॥ ८४ ॥ अभ्यर्णे यौवने यावद्विवाहसमयो भवेत् । तावत्पृथग्वसेदस्मादिति मातुलवाक्यतः ॥ ८५ ॥
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स्थितः कुमारोऽसौ कन्यायामतिसक्तवान् । तयोर्योगोऽभवत्कामावस्थामसहमानयोः ॥ ८६ ॥ ततः कान्तपुरं लज्जाप्रेरितौ तौ गतौ तदा। दृष्ट्वा तत्र कुमारस्य मात्रा पित्रा च शोकतः ॥ ८७ ॥ उत्पन्न हुई ।। ६७-७२ ।। शिवभूतिकी स्त्रीका नाम सोमिला था जो कि सोमशमां ब्राह्मण की पुत्री थी और उसी नगर में एक देवशर्मा नामका ब्राह्मण पुत्र था उसे चित्रसेना व्याही गई थी ॥ ७३ ॥ कितने ही दिन बाद जब अभिभूति ब्राह्मण मर गया तब उसके स्थानपर उसका पुत्र शिवभूति ब्राह्मण अधिरूद हुआ। इधर चित्रसेना विधवा हो गई इसलिए अपने पुत्रोंके साथ शिवभूतिके घर आकर रहने लगी सो ठीक ही है क्योंकि कर्मों की गति बड़ी डेढ़ी है । शिवभूति, अपनी वहिन चित्रसेना और उसके पुत्रोंका जो भरण-पोषण करता था वह पापिनी सोमिलाको सह्य नहीं हुआ इसलिए शिवभूतिने उसे ताड़ना दी तब उसने क्रोधित होकर मिथ्या दोष लगाया कि यह मेरा भर्ता चित्रसेना के साथ जीवित रहता है अर्थात् इसका उसके साथ अनुराग है । यहाँ आचार्य कहते हैं कि स्त्रियों को कोई भी कार्य कार्य नहीं है अर्थात् वे बुरासे बुरा कार्य कर सकती हैं इसलिए इन स्त्रियोंको बार-बार धिक्कार हो । चित्रसेनाने भी क्रोधमें आकर निदान किया कि इसने मुझे मिध्या दोप लगाया है। इसलिए मैं मरनेके बाद इसका निग्रह करूंगी - बदला लूँगी । तदनन्तर किसी एक दिन सोमिलाने शिवगुप्त नामक मुनिराजको पड़गाह्कर आहार दिया जिससे शिवभूतिने सोमिलाके प्रति बहुत ही क्रोध प्रकट किया परन्तु उन मुनिराजका माहात्म्य कह कर सोमिलाने शिवभूतिको प्रसन्न कर लिया और उसने भी उस दानकी अच्छी तरह अनुमोदना की । समय पाकर
शिवभूति मरा और अत्यन्त रमणीय वङ्ग देशके कान्तपुर नगर में वहाँ के राजा सुवर्णवर्मा तथा रानी विद्युल्लेखा के महाबल नामका पुत्र हुआ ।। ७४-८१ ।। इसी भरत क्षेत्रके श्रङ्ग देशकी चम्पा नगरी में राजा श्रीषेण राज्य करते थे । इनकी रानीका नाम धनश्री था, यह धनश्री कान्तपुर नगर के राजा सुवर्णवर्माकी बहिन थी । सोमिला उन दोनोंके कनकलता नामकी पुत्री हुई। जब यह उत्पन्न हुई थी तभी इसके माता-पिताने बड़े हर्ष से अपने आप यह निश्चय कर लिया था कि यह पुत्री महाबल कुमार के लिए देनी चाहिये और उसके माता-पिता ने भी यह स्वीकृत कर लिया था । महाबलका लालन-पालन भी इसी चम्पा नगरीमें मामा के घर बालिका कनकलता के साथ होता था । जय वह क्रमसे वृद्धिको प्राप्त हुआ और यौवनका समय निकट आ गया तब मामाने कहा कि जबतक तुम्हारे विवाहका समय आता है तबतक तुम यहाँ से पृथक् रहो । मामाके यह कहने से महाबल यद्यपि बाहर रहने लगा तो भी वह कन्या में सदा आसक्त रहता था। वे दोनों ही कामकी अवस्था को सह नहीं सके इसलिए उन दोनोंका समागम हो गया ।। ८२-८६ ।। इस कार्य से वे दोनों स्वयं १ वेगे ल० । २ तस्मात्पृथग् ल० । ३ दृष्टौ क०, ग०, घ० । ४ कुमारं च ल० ।
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