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पञ्चसप्ततितम पर्व
ऐरावतीसरिदक्षिणान्ते साधिसविद्यया । पर्णलव्या तदैवान्तःकृतशोको विसृष्टवान् ॥ ४४ ॥ सापि पञ्चनमस्कारपरिवर्तनतत्परा । निनाय शर्वरी कृच्छ्रानानुमत्युदिते स्वयम् ॥ १५॥ तत्र सनिहितो दैवात्कालकाल्यो वनेचरः। तस्मै निजपरायोरुस्फुरिताभरणान्यदात् ॥ ४६॥ धर्मच कथयामास सेन तुष्टो बनेचरः । भीमकूटाचलोपान्तनिवासी सिंहसम्ज्ञकः ॥ ४७ ॥ भयङ्कराख्यपल्लीशस्तस्य तां स समर्पयत् । सोऽपि पापों' विलोक्यना कामव्यामोहिताशयः ॥४८॥ निग्रहेण ग्रहः करो वात्मसात्कर्तुमुचतः। तद्वीक्ष्य पुत्र मैवं त्वं कृथाः प्रत्यक्षदेवता ॥ १९ ॥ यदि कुप्येदियं तापशापदुःखप्रदायिनी। इति मात्रुक्तिभीस्या तां दुर्जनोऽपि व्यसर्जयत् ॥ ५०॥ तत्रैव चन्दना तस्य मात्रा सम्बग्विधानतः । पोष्यमाणा विनिश्चिन्ता कश्चित्कालमजीगमत् ॥ ५ ॥ अथ वत्साहये देशे कौशाम्ब्यां प्रवरे पुरे । श्रेष्ठी वृषभसेनाख्यस्तस्य कर्मकरोऽभवत् ॥ ५२॥ मित्रवीरो वनेशस्य मित्रं तस्य वनाधिपः । चन्दनामर्पयामास सोऽपि भक्तया वणिक्पतेः ॥ ५३ ॥ धनेन महता सा नीत्वा कन्यां न्यवेदयत् । कदाचिच्छेष्टिनः पातुं जलमुखत्य यत्नतः ॥ ५४॥ आवर्जयन्स्याः केशानां कलापं मुक्तबन्धनम् । लम्बमानं करेणादात्सजला धरातले ॥ ५५ ॥ चन्दनायास्तदालोक्य तद्रपादतिशक्किनी । श्रेष्ठिनी तस्य भद्राख्या तरनया समम् ॥ ५६ ॥ सम्पर्क मनसा मत्वा कोपात्प्रफुरिताधरा । निक्षिप्तशृङ्खला कन्यां दुराहारेण दुर्जना ॥ ५७ ॥
प्रतर्जनादिभिश्चैनां निरन्तरमबाधत । सापि मस्कृतपापस्य विपाकोऽयं वराकिका ॥ ५८ ॥ ही डर गया। इसलिए उसने हृदयमें बहुत ही शोककर सिद्ध की हुई पर्णलध्वी नामकी विद्यासे उस चन्दनाको भूतरमण नामक यनमें ऐरावती नदीके दाहिने किनारेपर छोड़ दिया ॥४२-४४ ॥ पञ्चनमस्कार मन्त्रका जप करनेमें तत्पर रहने वाली चन्दनाने वह रात्रि बड़े कष्टसे बिताई। प्रातःकाल जब सूर्यका उदय हुआ तब भाग्यवश एक कालक नामका भील वहाँ स्वयं आ पहुँचा। चन्दनाने उसे अपने बहुमूल्य देदीप्यमान आभूषण दिये और धर्मका उपदेश भी दिया जिससे वह भील बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। वहीं कहीं भीमकूट नामक ! पर्वतके पास रहनेवाला एक सिंह नामका भीलोंका राजा था, जो कि भयंकर नामक पल्लीका स्वामी था। उस कालक नामक भीलने वह चन्दना उसी सिंह राजाको सौंप दी। सिंह पापी था अतः चन्दनाको देखकर उसका हृदय कामसे मोहित हो गया ।। ४५-४८ ॥ वह क्रूर ग्रहके समान निग्रह कर उसे अपने आधीन करनेके लिए उद्यत हुआ। यह देख उसकी माताने उसे समझाया कि हे पुत्र! तू ऐसा मत कर, यह प्रत्यक्ष देवता है. यदि कुपित हो गई तो कितने ही संताप, शाप और दुःख देने वाली होगी। इस प्रकार माताके कहनेसे डरकर उसने स्वयं दुष्ट होनेपर भी वह चन्दना छोड़ दी॥ ४६-५० ॥ तदनन्तर चन्दनाने उस भीलकी माताके साथ निश्चिन्त होकर कुछ काल वहीं पर व्यतीत किया। वहाँ भीलकी माता उसका अच्छी तरह भरण-पोषण करती थी ।। ५१॥
अथानन्तर-वत्स देशके कौशाम्बी नामक श्रेष्ठ नगरमें एक वृषभसेन नामका सेठ रहता था। उसके मित्रवीर नामका एक कर्मचारी था जो कि उस भीलराज का मित्र था। भीलोंके राजाने वह चन्दना उस मित्रवीरके लिए दे दी और मित्रवीरने भी बहुत भारी धनके साथ भक्तिपूर्वक वह चन्दना अपने सेठके लिए सौंप दी। किसी एक दिन वह चन्दना उस सेठके लिए जल पिला रही थी उस समय उसके केशोंका कलाप छूट गया था और जलसे भीगा हुआ पृथिवीपर लटक रहा था उसे वह बड़े यनसे एक हाथसे संभाल रही थी॥ ५२-५५ ॥ सेठकी स्त्री भद्रा नामक सेठानीने जब चन्दनाका वह रूप देखा तो वह शङ्कासे भर गई । उसने मनमें समझा कि हमारे पतिका इसके साथ सम्पर्क है। ऐसा मानकर वह बहुत ही कुपित हुई। क्रोधके कारण उसके भोंठ काँपने लगे। उस दुष्टाने चन्दनाको साँकलसे बाँध दिया तथा खराब भोजन और ताड़न मारण आदिके द्वारा वह उसे निरन्तर कष्ट पहुँचाने लगी। परन्तु चन्दना यही विचार करती थी कि यह सब मेरे द्वारा किये हुए पाप-कर्मका फल है यह वेचारी सेठानी क्या कर सकती है ? ऐसा विचारकर वह निरन्तर
पापी ब., म०।२-दतिकोपिनी ब.।
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