________________
४८४
महापुराणे उत्तरपुराणम् स्वयश्च वोद्रको नाम वणिग्भूत्वा तदालयम् । प्राविक्षत्पडके रूपं कन्ये ते तत्करस्थिते ॥ २१ ॥ विलोक्य भवति प्रीत्या सौरङ्गादतिसाहसान् । कुमारविहितान्मार्गाद्गत्वा किश्चित्ततोऽन्तरे ॥३०॥ चेलिनी कुटिला ज्येष्ठा मुक्त्वा स्वं गच्छ विस्मृता। न्यानयाभरणानीति स्वयं तेन सहागमत् ॥ ३ ॥ साप्याचाभरणागत्य तामदृष्टातिसन्धिता । तयाहमिति शोकार्ता निजमामी यशस्वतीम् ॥३२॥ राष्ट्रा शान्ति समीपेऽस्याः श्रत्वा धर्म जिनोदितम् । निविद्य संसृतेीक्षा प्राप पापविनाशिनीम् ॥३३॥ भवतापि महाप्रीत्या चेलिनीयं यथाविधि । गृहीतानुमहादेवी पट्टबन्धासतोष सा ॥ ३४ ॥ . चन्दना च यशस्वत्या गणिन्याः सन्निधौ स्वयम् । सम्यक्त्वं श्रावकाणाञ्च प्रतान्यादा सुखता ॥ ३५॥ ततः खगाव्यवाक्श्रेणीसुवर्णाभपुरेश्वरः । मनोवेगः खगाधीशः स मलोवेगया समम् ॥ ३६॥ स्वच्छन्द चिरमाक्रीय प्रत्यायश्चिन्दना बने । अशोकाख्ये समाक्रीडमानां परिजनैः सह ॥ ३० ॥ विलोक्यानङ्गनिर्मुकशरजर्जरिताङ्गकः । प्रापय्य स्वप्रियां गेहं रूपिणी विद्यया स्वयम् ॥ ३८ ॥ विकृत्य रूपं स्वं तन्त्र निधाय हरिविष्टरे । अशोकवनमभ्येत्य गृहीत्वा चन्दना द्रतम् ॥ ३९ ॥ प्रत्यागतो मनोवेगाप्येत विहितवचनम् । ज्ञात्वा कोपारुणीभूतविभीषणविलोचना ॥ ४०॥ तां विद्यादेवतां वामपादेनाक्रम्य सावधीत् । कृताहासा सा विद्याप्यगासिहासनारादा ॥१॥
चेष्टामालोकिनीविद्यातो ज्ञात्वा स्वपतेरनु । गच्छन्त्यधपथे दृष्ट्वा विसृजेमां स्वजीवितम् ॥ १२॥ यदि वान्छेरिति क्रोधात्तं निर्भसयति स्म सा। स भूतरमणेऽरण्ये तां स्वदारातिभीलुकः ॥४३॥
किया। वहाँ वे दोनों कन्याएं वोद्रकके हाथमें स्थित पटियेपर लिखा हुआ आपका रूप देखकर आपमें प्रेम करने लगी। कुमारने एक सुरङ्गका मार्ग पहलेसे ही तैयार करवा लिया था अतः वे कन्याएं बड़े साहसके साथ उस मार्गसे चल पड़ीं। चेलिनी कुटिल थी इसलिए कुछ दूर जानेके बाद ज्येष्ठासे बोली कि मैं आभूषण भूल आई हूँ तू जाकर उन्हें ले आ। यह कहकर उसने ज्येष्ठाको तो वापिस भेज दिया और स्वयं अभयकुमारके साथ आ गई ॥ २६-३१ ॥ जब ज्येष्ठा आभूषण ले कर लौटी तो वहाँ चेलनी तथा अभयकुमारको न पाकर बहुत दुःखी हुई और कहने लगी कि
ने मुझे इस तरह ठगा है। अन्तमें उसने अपनी मामी यशस्वती नामकी आर्यिकाके पास जाकर जैन धर्मका उपदेश सुना और संसारसे विरक्त हो कर पापोंका नाश करने वाली दीक्षा धारण कर ली ॥ ३२-३३ ॥ आपने भी बड़ी प्रीतिसे विधिपूर्वक चेलनाके साथ विवाह कर उसे महादेवीका पट्ट बाँधा जिससे वह बहुत ही सन्तुष्ट हुई ॥ ३४॥
इधर उत्तम व्रत धारण करने वाली चन्दनाने स्वयं यशस्वती आर्यिकाके समीप जाकर सम्यग्दर्शन और श्रावकोंके व्रत ग्रहण कर लिये ॥ ३५॥ किसी एक समय वह चन्दना अपने परिवारके लोगोंके साथ अशोक नामक वनमें क्रीड़ा कर रही थी। उसी समय दैवयोगले विजयाधं पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके सुवर्णाभ नगरका राजा मनोवेग विद्याधर अपनी मनोवेगा रानीके साथ स्वच्छन्द क्रीडा करता हुआ वहाँ से निकला और क्रीड़ा करती हुई चन्दनाको देखकर कामके द्वारा छोड़ हुए बाणोंसे जर्जरशरीर हो गया। वह शीघ्र ही अपनी स्त्रीको घर भेजकर रूपिणी विद्यासे अपना दूसरा रूप बनाकर सिंहासनपर बैठा आया और अशोक वनमें आकर तथा चन्दनाको लेकर शीघ्र ही वापिस चला गया। उधर मनोवेगा उसकी मायाको जान गई जिससे क्रोधके कारण उसके नेत्र लाल हो कर भयंकर दिखने लगे। उसने उस विद्या देवताको बायें पैरकी ठोकर देकर मार दिया जिससे वह अट्टहास करती हुई सिंहासनसे उसी समय चली गई ।। ३६-४१॥ तदनन्तर वह मनोवेगा रानी आलोकिनी नामकी विद्यासे अपने पतिकी सब चेष्टा जानकर उसके पीछे दौड़ी और आधे मार्गमें चन्दना सहित लौटते हुए पतिको देखकर बोली कि यदि अपना जीवन चाहते हो तो इसे छोड़ दो। इस प्रकार क्रोधसे उसने उसे बहुत ही डॉटा। मनोवेग अपनी स्त्रीसे बहुत
१ करस्थितम् ज०। २ सौभाग्या-घ०, ग०, क.। ३-प्येतन्निहितवञ्चनाम् म०, ल। ४-पाभोगिनी ब.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org