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पञ्चसप्ततितम पर्व
४८३ स चेटकमहाराजः संहादपमलीलिखत्' । पट्टके सप्तपुत्रीणां विशुद्धं शश्वदीक्षितुम् ॥ १५॥ निरीक्ष्य तत्र चेलिन्या रूपस्य पतितं मनाक । बिन्दुमूरौ विधानेऽस्य नृपे कुपितवत्यसौ ॥ १६॥ पूज्य द्वितिर्मया बिन्दुः प्रमृष्टः संस्तथापि सः । तथैव पतितस्तस्मिन्भाव्यमकेन तारशा ॥ १७ ॥ इति मत्वानुमानेन पुनर्न तममाजिषम् । इत्यब्रवीत्तदुक्त न भूपतिः प्रीतिमीयिवान् ॥ १८॥ स देवार्चनवेलायां जिनबिम्बोपकण्ठके। तस्पट्टकं प्रसार्येज्यां निवर्तयति सर्वदा ॥ १९ ॥ कदाचिच्चेटको गत्वा ससैन्यो मागधं पुरम् । राजा राजगृहं बाह्मोद्याने स्नानपुरस्सरम् ॥२०॥ जिनप्रतिनिधीपूर्वमभ्यया॑भ्यर्णपट्टकम् । आनर्च तद्विलोक्य त्वमप्राक्षी पार्श्ववर्तिनः ॥ २० ॥ किमेतदिति तेऽवोचन राज्ञः सप्तापि पुत्रिकाः । लिखितास्तासु कल्याणं चतस्रः समवापिताः ॥२२॥ तिस्रो नाद्यापि दीयन्ते तत्र द्वे प्राप्तयौवने । कनिष्ठा बालिका राजनिति तद्वचनश्रुतेः ॥ २३ ॥ 'भवान् रक्त तयोश्चित्रां मन्त्रिणः समजिज्ञपत् । तेऽपि तत्कार्यमभ्येत्य कुमारमवदनिति ॥ २४ ॥ चेटकाख्यमहीशस्य सुतयोरनुरक्तवान् । पिता ते याच्यमानोऽसौ न दत्ते वयसश्च्युतेः ॥ २५ ॥ इदञ्चावश्यकर्तयं कोऽप्युपायोऽत्र कथ्यताम् । सोऽपि मन्त्रिवचः श्रुत्वा तस्कार्योपायपण्डितः ॥ २६॥ "जोषमाध्वमहं कुर्वे तत्समर्थनमित्यमून् । सन्तोष्य मन्त्रिणः सोऽपि तत्स्वरूपं विलासवत् ॥ २७ ॥ पट्टके सम्यगालिख्य वोणाच्छाच यत्नतः । तत्पार्श्ववर्तिनः सर्वान् स्वीकृत्योरकोचदानतः॥ २८॥
दीक्षा धारण कर ली ।।१३-१४॥ तदनन्तर महाराज चेटकने नहके कारण सदा देखनेके लिए पट्टकपर अपनी सातों पुत्रियों के उत्तम चित्र बनवाये। चेलिनीके चित्र में जाँघपर एक छोटा-सा बिन्दु पड़ा हुआ था उसे देखकर राजा चेटक बनानेवालपर बहुत कुपित हुए। चित्रकारने नम्रतासे उत्तर दिया कि हे पूज्य ! चित्र बनाते समय यहाँ बिन्दु पड़ गया था मैंने उसे यद्यपि दो तीन बार साफ किया परन्तु वह फिर-फिरकर पड़ता जाता था इसलिए मैंने अनुमानसे विचार किया कि यहाँ ऐसा चिह्न होगा ही। यह मानकर ही मैने फिर उसे साफ नहीं किया है। चित्रकारकी बात सुनकर महाराज प्रसन्न हुए ॥ १५-१८॥ राजा चेटक देव-पूजाके समय जिन-प्रतिमाके समीप ही अपनी पुत्रियोंका चित्रपट फैलाकर सदा पूजा किया करते थे।॥ १६॥ किसी एक समय राजा चेटक अपनी सेनाके साथ मगधदेशके राजगृह नगरमें गये वहाँ उन्होंने नगरके बाह्य उपचनमें डेरा दिया। स्नान करनेके बाद उन्होंने पहले जिन-प्रतिमाओंकी पूजा की और उसके बाद समीपमें रखे हुए चित्रपट की पूजा की। यह देखकर तूने समीपवर्ती लोगोंसे पूछा कि यह क्या है? तब उन लोगोंने कहा कि हे राजन् ! ये राजाकी सातों पुत्रियों के चित्रपट हैं इनमेंसे चार पुत्रियाँ तो विवाहित हो चुकी हैं परन्तु तीन अविवाहित हैं उन्हें यह अभी दे नहीं रहा है। इन तीनमें दो तो यौवनवती हैं और छोटी अभी बालिका है ! लोगोंके उक्त वचन सुनकर तूने अपने मन्त्रियोंको बतलाया कि मेरा चित्त इन दोनों पुत्रियों में अनुरक्त हो रहा है। मन्त्री लोग भी इस कार्यको ले कर अभयकुमारके पास जाकर बोले कि तुम्हारे पिता चेटक राजाकी दो पुत्रियोंमें अनुरक्त हैं उन्होंने वे पुत्रियाँ माँगी भी हैं परन्तु अवस्था ढल जानेके कारण वह देता नहीं है । २०-२५ ॥ यह कार्य अवश्य करना है इसलिए कोई उपाय बतलाइये । मन्त्रियोंके वचन सुनकर उस कार्यके उपाय जाननेमें चतुर अभयकुमारने कहा कि आप लोग चुप बैठिये, मैं इस कार्यको सिद्ध करता हूँ। इस प्रकार संतुष्ट कर अभयकुमारने मन्त्रियोंको बिदा किया और स्वयं एक पटियेपर राजा श्रेणिकका विलास पूर्ण चित्र बनाया। उसे वनसे ढककर बड़े यनसे ले गया। राजाके समीपवर्ती लोगोंको घूस दे कर उसने अपने वश कर लिया और स्वयं वोद्रक नामका व्यापारी बनकर राजा चेटकके घरमें प्रवेश
१व्यलीलिखत् ख० । रूपावलीलिखत् ग०, क०, प० । २ सप्त चापि सः ल०।३ ताहशम् क०, ग०, ।। -माप्तवान् ल०। ५ राजद्रराजगृहं ल०। ६ भवद् ल । ७ योष-ल. 15 स्वीकृत्योत्कोटदानतः ल०, म०, स्वीकृत्योत्करदानतः ग०, १०, क० । 'उत्कोचो दौकनं तथा। उपप्रदानमुपदोपहारोपायने समे इति नामकोशे यतीन्द्राः (०, टि.)।
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