________________
चतुःसप्ततितमं पर्व ततः स निखिला सभामभयपण्डितो वाग्गुण
रुपायनिपुणेषु लब्धविजयध्वजोऽरअयत् ॥ ५४७॥
मालिनीच्छन्दः बस सुविदिततत्त्वः श्रावकः कायमज्ञः
स्फुरितदुरितदूरारूढमौल्यैढीयान् । अमरपरिवृढत्वं प्राप्य तस्योपदेशा
दभयविभुरभूत्सत्सङ्गमः किं न कुर्यात् ॥ ५४८ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् स्यादीस्तत्वविमर्शिनी कृतधियः श्रद्धानुविद्धा तया
हित्वा हेयमुपेयमाप्य विचरन् विच्छिद्य बन्धास्ततः । सत्कर्माणि च सन्ततं बहुगुणं संसावपन् सन्ततः
प्रान्तं प्राप्य भवेदिवाभयविभुनिर्वाणसौख्यालयः॥ ५४९ ॥ इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे अन्तिमतीर्थकर-श्रेणिकामय
कुमारचरितव्यावर्णनं नाम चतुःसप्ततितम पर्वः ॥ ४ ॥
थी इसीलिए अनेक उपायोंमें निपुण मनुष्योंमें विजयपताका प्राप्त करने वाले उस अभयकुमार पण्डितने अपने वचनके गुणोंसे समस्त सभाको प्रसन्न कर दिया था ॥५४७ ।। आचार्य कहते हैं कि देखो, कहाँ तो अच्छे तत्त्वोंको जानने वाला वह श्रावक और कहाँ उदयागत पापकर्मके कारण बहुत दूरतक बढ़ी हुई मूढ़ताओंसे अत्यन्त दृढ यह अज्ञानी ब्राह्मण ? फिर भी उसके उपदेशसे देवपद पाकर यह वैभवशाली अभयकुमार हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंका समागम क्या नहीं करता है ? अर्थात् सब कुछ करता है ॥ ५४८॥ जिस कुशल पुरुषकी बुद्धि तत्वोंका विचार करने वाली है तथा उस बुद्धिके साथ अटल श्रद्धा अनुविद्ध है वह उस बुद्धिके द्वारा छोड़ने योग्य तत्वको छोड़कर तथा ग्रहण करने योग्य तत्त्वको ग्रहण कर विचरता है। मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति करता है, सत्तामें स्थित कर्मोकी निरन्तर असंख्यातगुणी निर्जरा करता है और इस तरह संसारका अन्त पाकर अभयकुमारके समान मोक्षसुखका स्थान बन जाता है ।।५४६॥ इस प्रकार भार्षनामसे प्रसिद्ध, भगवद्गुणभद्राचार्य विरचित त्रिषष्ठिलक्षण महापुराणके संग्रहमें अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी, राजा श्रेणिक और अभयकुमारके
चरितका वर्णन करने वाला चौहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ।
।
१ प्राप्यते स्मोपदेशात् Jain Education Intern a l
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org