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महापुराणे उत्तरपुराणम
श्रेष्ठिनी किं करोति कुर्वन्त्यात्मविगर्हणम् । स्वाग्रजाया मृगावल्या अप्येतन्न न्यवेदयन ॥ ५९ ॥ अन्यदा नगरे तस्मिन्नेव वीरस्तनुस्थितः । प्रविष्टवानिरीक्ष्यासी तं भक्तया मुक्तशृखला ॥ ६ ॥ सर्वाभरगदृश्याङ्गी' तनारेणेव भूतलम् । शिरसा स्पृश्य नत्वोच्चैः प्रतिगृह्य यथाविधि ॥६१ । भोजयित्वाप तहानान्मानिनी मानितामरैः । वसुधारां नरुत्पुष्पवृष्टि मुरभिमारनम् ॥ ६२ ॥ सुरदुन्दुभिनि?षं दानस्तवनधोपगम् । तदेवोत्कृष्टपुण्यानि फलन्ति विपुलं फलम् ॥ ६३ ॥ अग्रजास्यास्तदागत्य पुत्रेणामा मृगावती। तद्ज्ञात्वोदयनायन स्नेहादालिङ्गय चन्दनाम् ॥ ६४ ॥ पृष्ट्वा तां प्राक्तन वृत्तं श्रुत्वा शोकाकुला भृशम् । 'निजगेहं समानीय मुस्थिता भयविह्वलौ ॥ ६५ ॥ स्वपादशरणौ भद्रां श्रेष्ठिनञ्च दयावती । चन्दनापादपङ्कजयुगलं तावनीननमन् ॥ ६६ क्षमा मूर्तिमतीवेयं कृत्वालादं तयोस्ततः । तद्वाताकर्णनादीर्णरागादागतवन्धुभिः ॥ ७ ॥ प्रापितैतरपुरं वीरं.वन्दितं निजबान्धवान् । विसृज्य जातनिवेगा गृहीत्वात्रैव संयमम् ॥ ६८ ॥ तपोवगममाहात्म्यादध्यस्थागणिनीपदम् । इताहजन्मसम्बन्धं श्रुत्वा तत्रानुचेटकः ॥ ६९ ॥ प्राकिं कृत्वागता चन्दनायैतत्स च पृष्टवान् । सोऽप्यवादीदिवास्ति मगध नगरी पृथुः ॥ ७० ॥ वत्सेति पालयत्येनां महीपाले प्रसेनिके। विंप्रस्ताग्निमित्राख्यस्तस्यैका ब्राह्मणी प्रिया ॥ ७ ॥ परा वैश्यसुता सूनुर्याह्मण्यां शिवभूतिवाक । दुहिता चित्रसेनाख्या "विट्सुतायामजायत ॥ ७२॥
आत्मनिन्दा करती रहती थी। उसने यह सब समाचार अपनी बड़ी यहिन मृगायताक लिए भी कहलाकर नहीं भेजे थे। ५६-५६ ।।
तदनन्तर किसी दूसरे दिन भगवान् महावीर स्वामीने आहारके लिए उसी नगरीम प्रवेश किया। उन्हें देख चन्दना बड़ी भक्तिसे आगे बढ़ी। आते बढ़ते ही उसकी साँकल टूट गई और
आभरणोंसे उसका सब शरीर सुन्दर दिखने लगा। उन्हींक भारसे मानो उसने झुककर शिरसे पृथिवी तलका स्पर्श किया, उन्हें नमस्कार किया और विधिपूर्वक पूढगाह कर उन्हें भोजन कराया । इस आहार दानक प्रभावसे वह मानिनी बहुत ही सन्तुष्ट हुइ, दवान उसका सन्मान किया, की वृष्टि की, सुगन्धित फूल बरसाये, देव-दुन्दुभियोंका शब्द हुआ और दानकी स्तुतिका घोपणा होने लगी सो ठीक ही है क्योंकि उत्कृष्ट पुण्य अपने बड़े भारी फल तत्काल ही फलते हैं। ६०६३ ॥ तदनन्तर चन्दनाकी बड़ी वहिन मृगावती यह समाचार जानकर उसी समय अपने पुत्र उदयनके साथ उसके समीप आई और स्नेहसे उसका आलिङ्गन कर पिछला समाचार पूछने लगी तथा सब पिछला समाचार सुनकर बहुत ही व्याकुल हुई। तदनन्तर रानी मृगावती उसे अपने घर ले जाकर सुखी हुई। यह देख भद्रा सेठानी और वृपभसेन सेठ दोनों ही भयसे धबड़ाये और मृगावतीके चरणोंकी शरणमें आये। दयालु रानीने उन दोनोंसे चन्दनाके चरण-कमलोंमें प्रणाम कराया ॥ ६४-६६ ॥ चन्दनाके क्षमाकर देनेपर वे दोनों बहुत ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि यह मानो मूतिमती क्षमा ही है। इस समाचारके सुननसे उत्पन्न हुए हक कारण चन्दनाक भाइवन्धु भी उसके पास आ गये। उसी नगरमें सबलोग महावीर स्वामीकी वन्दनाके लिए गये थे, चन्दना भी गई थी, वहाँ वैराग्य उत्पन्न होनेसे उसने अपने सब भाई-बन्धुओंको छोड़कर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण तथा सम्यग्ज्ञानके माहात्म्यसे उसने उसी समय गणिनीका पद प्राप्त कर लिया। इस प्रकार चन्दना वतमानके भवकी बात सुनकर राजा चेटकने फिर प्रश्न किया कि चन्दना पूर्व जन्ममें ऐसा कौन-सा कार्य करके यहाँ आई है। इसके उत्तरमें गणधर भगवान् कहने लगे-इसी मगध देशमें एक वत्सा नामकी विशाल नगरी है। राजा प्रसेनिक उसमें राज्य करता था। उसी नगरी में एक अग्निमित्र नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी दो स्त्रियाँ थीं एक ब्राह्मणी और दूसरी वैश्यकी पुत्री। ब्राह्मणीके शिवभूति नामका पुत्र हुआ और वैश्य पुत्रीके चित्रसेना नामकी.लड़की
१ सर्वाभरणहृद्याता ल०। २ निजगृह घ०।३ मृगावती ल०।४ सूनब्राह्मण्या ल०। ५ वैश्यपुण्या इति कचित् ।
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