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महापुराणे उत्तरपुराणम् उमया सममाण्याय नतिस्वागादमत्सरः । पापिनोऽपि प्रतुष्यन्ति प्रस्पष्ट रष्टसाहसाः ॥३३७ ॥ कदाचिच्चेटकाख्यस्य नृपतेश्चन्दनाभिधाम् । सुतां वीक्ष्य वनक्रीडासक्तां कामशरातुरः ॥ ३३८ ॥ कृतोपायो गृहीत्वैनां कश्चिद्गच्छन्नभश्चरः। पश्चाद्रीत्वा स्वभार्याया महाटव्यां व्यसर्जयत् ॥ ३३९ ॥ वनेचरपतिः कश्चित्तत्रालोक्य धनेच्छया। एनां वृषभदत्तस्य वाणिजस्य समर्पयत् ॥ ३४०॥ सस्य भार्या सुभद्राख्या तया सम्पर्कमात्मनः । वणिजः २शङ्कमानासौ पुराणं ३कोद्रवीदनम् ॥ ३४१॥ आरनालेन सम्मिश्र' शरावे निहितं सदा । दिशती शृङ्खलाबन्धभागिनीं तां ब्यधाषा ॥ ३४२ ॥ परेचर्वत्सदेशस्य कौशाम्बीनगरान्तरम् । कायस्थित्यै विशन्तं तं महावीरं विलोक्य सा ॥ ३४३ ॥ प्रत्युव्रजन्ती विच्छिमशृङ्गलाकृतवन्धना। लोलालिकुललीलोरुकेशभाराचलाचलात् ॥ ३४४ ॥ विगलन्मालतीमालादिव्याम्बरविभूषणा । नवप्रकारपुण्येशा भक्तिभावभरानता ॥ ३५५ ॥ शीलमाहात्म्यसम्भूतपृथुहेमशराविका । शाल्यन्नभाववत्कोद्रवौदनं४ विधिवत्सुधीः ॥ ३४६ ॥ अन्नमाश्राणयत्तस्मै तेनाप्याश्चर्यपञ्चकम् । बन्धुभिश्च समायोगः कृतश्चन्दनया तदा ॥ ३४७ ॥ भगवान्वर्धमानोऽपि नीत्वा द्वादशवत्सरान् । छानस्थ्येन जगद्वन्धुजम्भिकग्रामसन्निधौ ॥ ३४८॥ ऋजुकूलानदीतीरे मनोहरवनान्तरे। महारत्नशिलापट्टे प्रतिमायोगमावसन् ॥ ३४९ ॥ स्थित्वा षष्ठोपवासेन 'सोऽधस्तात्सालभूरुहः । वैशाखे मासि सज्योत्स्नदशम्यामपरालके ॥ ३५० ॥
हस्तोत्तरान्तरं याते शशिन्यारूढशुद्धिकः । क्षपकश्रोणिमारुह्य शुक्लध्यानेन सुस्थितः ॥ ३५१ ॥ किया परन्तु वह उसमें समर्थ नहीं हो सका। अन्तमें उसने भगवानके महति और महावीर ऐसे दो नाम रख कर अनेक प्रकारकी स्तुति की, पार्वतीके साथ नृत्य किया और सब मात्सर्यभाव छोड़ कर वह वहाँ से चला गया सो ठीक ही है क्योंकि साहसको स्पष्ट रूपसे देखने वाले पापी जीव भी सन्तुष्ट हो जाते हैं ।। ३३१-३३७॥
अथानन्तर-किसी एक दिन राजा चेटककी चन्दना नामकी पुत्री वनक्रीड़ामें आसक्त थी, उसे देख कोई विद्याधर कामबाणसे पीडित हुआ और उसे किसी उपायसे लेकर चलता बना। पीछे अपनी स्त्रीसे डरकर उसने उस कन्याको महाटवीमें छोड़ दिया ।। ३३८-३३६ ।। वहाँ किसी भीलने देख कर उसको धनकी इच्छासे वृषभदत्त सेठको दी ॥३४०॥ उस सेठकी स्त्रीका नाम सुभद्रा था उसे शंका हो गई कि कहीं अपने सेठका इसके साथ सम्बन्ध न हो जाय। इस शङ्कासे वहः चन्दनाको खानेके लिए मिट्टीके शकोरामें कांजीसे मिला हुआ कोदौंका भात दिया करती थी और क्रोध वश उसे सदा सांकलसे बाँधे रहती थी ॥ ३४१-३४२ ।। किसी दूसरे दिन वत्स देशकी उसी कौशाम्बी नगरीमें आहारके लिए भगवान् महावीर स्वामी गये। उन्हें नगरीके भीतर प्रवेश करते देख चन्दना उनके सामने जाने लगी । उसी समय उसके सांकलके सब बन्धन टूट गये, चञ्चल भ्रमरसमूहके समान काले उसके बड़े-बड़े केश चश्चल हो उठे और उनसे मालतीकी माला टूटकर नीचे गिरने लगी, उसके वस्त्र आभूषण सुन्दर हो गये, वह नव प्रकारके पुण्यकी स्वामिनी बन गई, भक्तिभावके भारसे झुक गई, शीलके माहात्म्यसे उसका मिट्टीका शकोरा सुवर्णपात्र बन गया और कोदोंका भात शाली चाँवलोंका भात हो गया। उस बुद्धिमतीने विधिपूर्वक पड़गाहकर भगवानको आहार दिया इसलिए उसके यहाँ पञ्चाश्चर्योंकी वर्षा हुई और भाई-बन्धुओं के साथ उसका समागम हो गया ।। ३४३-३४७॥
इधर जगद्वन्धु भगवान् वर्धमानने भी छद्मस्थ अवस्थाके बारह वर्ष व्यतीत किये। किसी एक दिन वे जम्भिक घामके समीप ऋजुकूला नदीके किनारे मनोहर नामक वनके मध्यमें रत्नमयी एक बड़ी शिलापर सालवृक्षके नीचे वेलाका नियम लेकर प्रतिमा योगसे विराजमान हुए। वैशाख शुक्ला दशमीके दिन अपराहण कालमें हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रके बीचमें चन्द्रमाके आ जाने पर परिणामोंकी विशुद्धताको बढ़ाते हुए वे क्षपकश्रेणीपर आरूढ हुए। उसी समय उन्होंने
१ वणिजोऽपत्यं पुमान् वाणिजः तस्य । २ शङ्कमानोऽसौ ल० । ३ कोद्रवोदनम् ल०।४ कोद्रवोदनं क०, ख०, ग०, घ०, म०। ५ सोऽधःस्थात् ल० ।
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