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महापुराणे उत्तरपुराण इति जीवस्य याथात्म्यं युक्त्या व्यक्त न्यवेदयत् । द्रव्यहेतुं विधायास्य वचः कालादिसाधनः ॥३६६ ॥ विनेयोऽहं कृतश्राद्धो जीवतत्वविनिश्चये । सौधर्मपूजितः पञ्चशतब्राझगसूनुभिः ॥ ३६७ ॥ श्रीवर्धमानमानम्य संयम प्रतिपक्षवान् । तदैव मे समुत्पन्नाः परिणामविशेषतः ॥ ३६८॥ शुद्धयः सप्तसर्वाङ्गानामप्यर्थपदान्यतः। भट्टारकोपदेशेन श्रावणे बहुले तिथौ ॥ ३६९ ॥ पक्षादावर्थरूपेण सद्यः पर्याणमन् स्फुटम् । पूर्वाहे पश्चिमे भागे पूर्वाणामप्यनुक्रमात् ॥ ३०० ॥ इत्यनुज्ञातसर्वाङ्गपूर्वार्थो धीचतुष्कवान् । अङ्गानां ग्रन्थसन्दर्भ पूर्वरात्रौ व्यधामहम् ॥ ३७॥ पूर्वाणां पश्चिमे भागे ग्रन्थकर्ता ततोऽभतम् । इति श्रुतद्धिभिः पूर्णोऽभूवं गणभृदादिमः ॥१२॥ ततः परं जिनेन्द्रस्य वायुभूत्यग्निभूतिको । सुधर्ममौयौं मौन्द्राख्यः पुत्रमैत्रेयसम्झकौ ॥ ३७३ ॥ अकम्पनोऽन्धवेलाख्यः' प्रभासश्च मया सह । एकादशेन्द्रसम्पूज्याः सन्मतेर्गणनायकाः ॥ ३७४ ॥ शतानि त्रीणि पूर्वाणां धारिणः शिक्षकाः परे । शून्यद्वितयरन्ध्रादिरन्ध्रोक्ताः सत्यसंयमाः ॥ ३७५॥ सहस्त्रमेकं विज्ञानलोचनास्त्रिशताधिकम् । पञ्चमावगमाः सप्तशतानि परमेष्ठिनः ॥ ३७६ ॥ शतानि नवविज्ञेया विक्रियद्धिविवद्धिताः । शतानि पञ्च सम्पूज्याश्चतुर्थज्ञानलोचनाः ॥ ३७७ ॥ चतुःशतानि सम्प्रोक्तास्तत्रानुत्तरवादिनः । चतुर्दशसहस्राणि पिण्डिताः स्युर्मुनीश्वराः ।। ३७८ ॥ चन्दनाद्यायिकाः शून्यत्रयषड़वह्निसम्मिताः । श्रावका लक्षमेकं तु त्रिगुणाः श्राविकास्ततः ॥ ७९ ॥ देवा देव्योप्यसंख्यातास्तिर्यञ्चः कृतसङ्यकाः । गणैादशभिः प्रोक्तैः परीतेन जिनेशिना ॥ ३८०॥ सिंहविष्टरमध्यस्थेनार्धमागधभाषया । षड्व्याणि पदार्थाश्च सप्तसंसृतिमोक्षयोः ॥ ३८१ ॥
मुक्त हो जानेपर हानि अवश्य होती है परन्तु उनका क्षय नहीं होता और उसका कारण जीवोंका अनन्तपना ही है। जिस प्रकार पदार्थमें अनन्त शक्तियाँ रहती हैं अतः उनका कभी अन्त नहीं होता इसी प्रकार संसारमें अनन्त जीव रहते हैं अतः उनका कभी अन्त नहीं होता ॥३६४-३६५ ।। इस प्रकार भगवान्ने युक्ति पूर्वक जीव तत्त्वका स्पष्ट स्वरूप कहा। भगवान्के वचनको द्रव्यहेतु मानकर तथा काललब्धि आदिकी कारण सामग्री मिलनेपर मुझे जीवतत्त्वका निश्चय हो गया
और मैं उसकी श्रद्धाकर भगवान्का शिष्य बन गया। तदनन्तर सौधर्मेन्द्रने मेरी पूजा की और मैंने पाँच सौ ब्राह्मणपुत्रोंके साथ श्रीवर्धमान स्वामीको नमस्कारकर संयम धारण कर दि की विशेष शुद्धि होनेसे मुझे उसी समय सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई। तदनन्तर भट्टारक वर्धमान स्वामीके उपदेशसे मुझे श्रावण वदी प्रतिपदाके दिन पूर्वाण कालमें समस्त अङ्गोंके अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराङ्ग कालमें अनुक्रमसे पूर्वो के अर्थ तथा पदोंका भी स्पष्ट बोध हो गया ॥ ३६६-३७० । इस प्रकार जिसे समस्त अंगों तथा पूर्वोका ज्ञान हुआ है और जो चार ज्ञानसे सम्पन्न है ऐसे मैंने रात्रि के पूर्व भागमें अङ्गोंकी और पिछले भागमें पूर्वोकी ग्रन्थ-रचना की। उसी समयसे मैं ग्रन्थकर्ता हुआ । इस तरह श्रुतज्ञान रूपी ऋद्धिसे पूर्ण हुश्रा मैं भगवान् महावीर स्वामीका प्रथम गणधर हो गया ॥ ३७१-३७२ ।। इसके बाद वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेला तथा प्रभास ये गणधर और हुए। इस प्रकार मुझे मिलाकर श्रीवर्धमान स्वामीके इन्द्रों द्वारा पूजनीय ग्यारह गणधर हुए.॥३७३-३७४।। इनके सिवाय तीन सौ ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्वोके धारक थे, नौ हजार नौ सौ यथार्थ संयमको धारण करनेवाले शिक्षक थे, एक हजार तीन सौ अवधिज्ञानी थे, सात सौ केवलज्ञानी परमेष्ठी थे, नौ सौ विक्रियाऋद्धिके धारक थे, पाँच सौ पूजनीय मनःपर्ययज्ञानी थे और चार सौ अनुत्तरवादी थे इस प्रकार सब मुनीश्वरोंकी संख्या चौदह हजार थी ॥३७५-३७८ ।। चन्दनाको आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक थे, तीन लाख श्राविकाएं थीं, असंख्यात देव देवियाँ थीं, और संख्यात तिर्यश्च थे। इस प्रकार ऊपर कहे हुए बारह गणोंसे परिवृत भगवानने सिंहासनके मध्यमें स्थित हो अर्धमागधी भाषाके द्वारा छह द्रव्य, सात तत्त्व, संसार और मोक्षके
१ अकम्पनोऽन्वचेलाख्यः इति कचित् । २ धारकाः म०, ल० ।
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