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चतुःसप्ततितम पर्व
श्रावकः कपिरोमाख्यवल्लीजाल समीक्ष्य मे । दैवमेतदिति व्यक्तमुक्त्वा भक्त्या परीत्य तत् ॥ ४७३ ॥ प्रणम्य स्थितवान् विप्रोऽप्याविष्कृतरुषाज्ञकः' । कराभ्यां तत्समुच्छिन्दन् विमृद्नंश्च समन्ततः॥४७॥ तत्कृतासह्यकण्डूयाविशेषेणातिबाधितः । एतत्सन्निहितं दैवं त्वदीयमिति भीतवान् ॥ ४७५ ॥ सहासो विद्यते नान्यद्विधा तु सुखदुःखयोः । प्राणिनां प्राक्तनं कर्म मुक्त्वास्मिन्मूल कारणम् ॥ ४७६॥ श्रेयोऽवाप्तं ततो यत्नं तपोदानादिकर्मभिः । कुरु त्वं मतिमन्मौलां हित्वा देवनिबन्धनम् ॥ ४७७ ॥ देवाः खलु सहायत्वं यान्ति पुण्यवतां नृणाम् । न ते किञ्चित्कराः पुण्यविलये भृत्यसन्निभाः ॥४७८॥ इत्युक्त्वास्तद्विजोद्भुतदैवमूढ्यस्ततः क्रमात् । श्रावकस्तेन विप्रेण गङ्गातीरं समागमत् ॥ ४७९ ॥ बुभुक्षुस्तन्न विप्रोऽसौ मणिगङ्गाख्यमुत्तमम् । तीर्थमेतदिति स्नात्वा तीर्थमूढं समागमत् ॥ ४८०॥ अथास्मै भोक्तुकामाय भुक्त्वा स श्रावकः स्वयम् । स्वोच्छिष्टं सुरसिन्ध्वम्बुमिश्रितं पावनं त्वया ॥४८॥ भोक्तव्यमिति विप्राय ददौ ज्ञापयितुं हितम् । तदृष्टाहं कथं भुले तवोच्छिष्टं विशिष्टताम् ॥ ४८२ ॥ किं न वेसि ममैवं त्वं वक्तेति स तमब्रवीत् । कथं तीर्थजलं पापमलापनयने क्षमम् ॥ १८३ ॥ यद्यद्योच्छिष्टदोषञ्चन्नापनेतुं समीहते । ततो निर्हेतुकामेतां प्रत्येयां मुग्धचेतसाम् ॥ ४८४ ॥ त्यज दुर्वासनां पापं प्रक्षाल्यमिति वारिणा । तथैव चेरापोदानाधनुष्ठानेन किं वृथा ॥ ४८५॥ तेनैव पापं प्रक्षाल्यं सर्वत्र सुलभं जलम् । मिथ्यात्वादिचतुष्केण बध्यते पापमूर्जितम् ॥ ४८६ ॥
सम्यक्त्वादिचतुष्केण पुण्य प्रान्ते च निवृतिः । एतज्जैनेश्वरं तत्वं गृहाणेत्यवदत्पुनः ॥ ४८७ ॥ स्थानमें जा पहुंचे। वहाँ करेंचकी लताओंका समूह देखकर श्रावकने कहा कि 'यह हमारा देवता है। यह कहकर श्रावकने उस लता-समूहकी भक्तिसे प्रदक्षिणा की, नमस्कार किया और यह सबकर वह वहीं खड़ा हो गया। अज्ञानी ब्राह्मणने कुपित होकर दोनों हाथोंसे उस लतासमूहके पत्ते तोड़ लिये तथा उन्हें मसलकर उनका रङ्ग सब शरीरमें लगा लिया। लगाते देर नहीं हुई कि वह, उस
द्वारा उत्पन्न हुई असह्य खुजलीकी भारी पीड़ासे दुःखी होने लगा तथा डरकर श्रावकसे कहने लगा कि इसमें अवश्य ही तुम्हारा देव रहता है ।। ४६८-४७५ ॥ ब्राह्मण-पुत्रकी बात सुन, श्रावक हँसता हुआ कहने लगा कि जीवोंको जो सुख-दुःख होता है उसमें उनके पूर्वकृत कर्मको छोड़कर और कुछ मूल कारण नहीं है ।।४७६ ।। इसलिए तू तप दान आदि सत्कार्योंके द्वारा पुण्य प्राप्त करनेका प्रयत्न कर और हे बुद्धिमन् ! इस देवविषयक मूढ़ताको छोड़ दे। निश्चयसे देवता पुण्यात्मा मनुष्योंकी ही सहायता करते हैं वे भृत्यके समान हैं और पुण्य क्षीण हो जानेपर किसीका कुछ भी नहीं कर सकते हैं ॥४७७-४७८ । इस प्रकार कहकर श्रावकने उस ब्राह्मणकी देवनूढता दूर कर दी। तदनन्तर अनुक्रमसे उस ब्राह्मणके साथ चलता हुआ श्रावक गङ्गा नदीके किनारे पहुँचा ॥४७६ ॥ भूख लगनेपर उस ब्राह्मणने 'यह मणिगङ्गा नामका उत्तम तीर्थ है' यह समझकर वहाँ स्नान किया और इस तरह वह तीर्थमूढताको प्राप्त हुआ ॥४८०॥ तदनन्तर जब वह ब्राह्मण भोजन करनेकी इच्छा करने लगा तब उस श्रावकने पहले स्वयं भोजनकर अपनी जूठनमें गङ्गाका जल मिला दिया और हितका उपदेश देनेके लिए यह कहते हुए उसे दिया कि 'यह पवित्र है तुम खाओ'। यह देख ब्राह्मणने कहा कि 'मैं तुम्हारी जूठन कैसे खाऊँ ? क्या तुम मेरी विशेषता नहीं जानते ? ब्राह्मणकी बात सुनकर श्रावक कहने लगा कि तीर्थजल यदि आज जूठनका दोष दूर करनेमें समर्थ नहीं है तो फिर पाप रूप मलको दूर हटानेमें समर्थ कैसे हो सकता है ? इसलिए तू अकारण तथा मूर्ख जनोंके द्वारा विश्वास करने योग्य इस मिथ्या वासनाको छोड़ दे कि जलके द्वारा पाप धोया जा सकता है। यदि जलके द्वारा पाप धोये जाने लगे तो फिर व्यर्थ ही तप तथा दान आदिके करनेसे क्या लाभ है ? ॥४८१-४८५।। जल सब जगह सुलभ है अतः उसीके द्वारा पाप धो डालना चाहिये। यथार्थमें बात यह है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय इन चारके द्वारा तीव्र पापका बन्ध होता है और सम्यक्त्व,
१ रुषोत्युकः ल० । २ मूद इत्यपि क्वचित् । ३ तके किञ्चित्कराः पुण्यवलये क० । ४ प्रध्येयां ल..
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