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चतुःसप्ततितम पर्व
४७३ श्रद्धा सद्यः समुत्पन्ना सोपदेशसमुद्रता' । आचाराख्यादिमाङ्गोक्ततपोभेदश्रुतेद्रुतम् ॥ ४४३ ॥ प्रादुर्भूता रुचिस्तज्जैः सूत्रजेति निरूप्यते । या तु बीजपदादान' पूर्वसूक्ष्मार्थजा रुचिः ॥ ४४४ ॥ बीजजासौ पदार्थानां सङ्क्षेपोक्त.या समुद्गता । या सा साक्षेपजा यान्या तस्या विस्तारजा तु सा॥४४५ प्रमाणनयनिक्षेपाधुपायैरतिविस्तृतैः । अवगाह्य परिज्ञानासत्त्वस्याङ्गादिभाषितम् ॥ १४ ॥ वाग्विस्तरपरित्यागादुपदेष्टुर्महामतेः । अर्थमात्र समादानसमुत्था रुचिरर्थजा ॥ ४४७ ॥ अङ्गाङ्गबाह्यसद्भावभावनातः समुद्रता । क्षीणमोहस्य या श्रद्धा सावगाढेति कथ्यते ॥ ४४८ ॥ केवलावगमालोकिताखिलार्थगता रुचिः । परमाद्यवगाढाऽसौ श्रद्धति परमर्षिभिः ॥ ४४९ ॥ एतास्वपि महाभाग तव सन्त्यद्य काश्चन । दर्शनाद्यागमप्रोक्तशुद्धषोडशकारणैः ॥ ४५० ॥ भव्यो व्यस्तैः समस्तैश्च नामात्मीकुरुतेऽन्तिमम् । तेषु श्रद्धादिभिः कैश्चिद्वध्वा तन्नामकारणैः ॥४५॥ रत्नप्रभां प्रविष्टः सन् तत्फलं मध्यमायुषा । भुक्त्वा निर्गत्य भन्यास्मिन् महापद्माख्यतीर्थकृत् ॥४५२॥ आगाम्युत्सपिणीकालस्यादिमः क्षेमकृत्सताम् । तस्मादासमभव्योऽसि मा भैषीः संसृतेरिति ॥४५३॥ स्वस्य रत्नप्रभावाप्लेविषण्णः श्रेणिकः पुनः। अप्राक्षीद्धीधनान्योऽपि पुरेऽस्मिन्पुण्यधामनि ॥ ४५४ ॥ किमस्त्यधोगतिं यास्यन्नित्यतो मुनिरादिशत् । कालसौकरिकस्यात्र शुभायाश्च प्रवेशनम् ॥ ४५५ ॥ अस्ति द्विजतनूजायास्तत्कुतश्चेनिशम्यताम् । कालसौकरिकोऽत्रैव पुरे नीचकुले भृशम् ॥ ४५६ ॥
भवस्थितिवशाबद्धनरायुः पापकर्मणा । सप्तकृरवोऽधुना जातिस्मरो भूत्वैवमस्मरत् ॥ ४५७ ॥ पुराण सुननेसे जो शीघ्र ही श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वह उपदेशोत्थ सम्यग्दर्शन है। आचाराङ्ग
आदि शास्त्रोंमें कहे हुए तपके भेद सुननेसे जो शीघ्र ही श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सूत्रज सम्यग्दर्शन कहलाता है। बीजपदोंके ग्रहण पूर्वक सूक्ष्मपदार्थोंसे जो श्रद्धा होती है उसे बीजज सम्यग्दर्शन कहते हैं। पदार्थोंके संक्षेप कथनसे जो श्रद्धा होती है वह संक्षेपज सम्यग्दर्शन है, जो विस्तारसे
माण नय विक्षेप आदि उपायोंके द्वारा अवगाहनकर अङ्ग पूर्व दिमें कहे हए तत्त्वोंकी श्रद्धा होती है वह विस्तारज सम्यग्दर्शन कहलाता है । वचनोंका विस्तार छोड़कर महाबुद्धिमान उपदेशकसे जो केवल अर्थमात्रका ग्रहण होनेसे श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अर्थज सम्यग्दर्शन है । जिसका मोहनीय कर्म क्षीण हो गया है ऐसे मनुष्यको अङ्ग तथा अङ्गबाह्य ग्रन्थोंकी भावनासे जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अवगाढ़ सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥४४१-४४८॥ केवलज्ञानके द्वारा देखे हुए समस्त पदार्थोंकी जो श्रद्धा होती है उसे परमावगाढ सम्यग्दर्शन कहते हैं ऐसा परमर्षियोंने कहा है ।। ४४६ ॥ हे महाभाग ! इन श्रद्धाओंमेंसे आज तेरे कितनी ही श्रद्धाएँ-सम्यग्दर्शन विद्यमान हैं। इनके सिवाय आगममें जिन दर्शन-विशुद्धि आदि शुद्ध सोलह कारण भावनाओंका वर्णन किया गया है उन सभीसे अथवा यथा सम्भव प्राप्त हुई पृथक्-पृथक् कुछ भावनाओंसे भव्य जीव तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध करता है। उनमेंसे दर्शनविशुद्धि आदि कितने ही कारणोंसे तू तीर्थंकर नामकर्मका बन्धकर रत्नप्रभा नामक पहिली पृथिवीमें प्रवेश करेगा, मध्यम आयुसे वहाँका फल भोगकर निकलेगा और तदनन्तर हे भव्य ! तू इसी भरतक्षेत्रमें आगामो उत्सर्पिणी कालमें सज्जनोंका कल्याण करनेवाला महापद्म नामका पहला तीर्थंकर होगा। तू निकट भव्य है अतः संसारसे भय मत कर ॥ ४५०-३५३ ॥ तदनन्तर अपने आपको रजप्रभा पृथिवीकी प्राप्ति सुनकर जिसे खेद हो रहा है ऐसे राजा श्रेणिकने फिर पूछा कि हे बुद्धिरूपी धनको धारण करनेवाले गुरुदेव ! पुण्यके घर स्वरूप इस नगरमें मेरे सिवाय और भी क्या कोई नरक जानेवाला है ? उत्तरमें गणधर भगवान् कहने लगे कि हाँ, इस नगरमें कालसौकरिक और ब्राह्मणकी पुत्री शुभाका भी नरकमें प्रवेश होगा। उनका नरकमें प्रवेश क्यों होगा? यदि यह जानना चाहता है तो सुन मैं कहता हूँ। कालसौकरिक इसी नगरमें नीच कुलमें उत्पन्न हुआ था। वह यद्यपि पहले बहत पापी था तो भी उसने भवस्थितिके वशसे सात बार मनुष्य आयुका बन्ध किया था। अबकी बार उसे जातिस्मरण हुआ है जिससे वह सदा ऐसा विचार करता रहता है
१ समुद्भवा ल० । २ पूर्वा ख०,५०। ३ अर्थमात्रं समादाय म०ल । अर्थमात्रसमाधान इति क्वचित् ।
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