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चतुःसप्ततितमं पर्व इत्यनालोचितार्थस्य वचस्तेनैति सारताम् । यतो रागाद्यविद्यानां क्वचिन्निर्मूलसंक्षयः ॥५०॥ सर्वज्ञस्य विरागस्य प्रयोगः साधन प्रति । क्रियते युक्तिवादानुसारिणो विदुषस्तव ॥ ५.२ ॥ कचिदात्यन्तिकी पुसि यान्ति सार्धमविद्यया । रागादयस्तिरोभूतिं तारतम्यावलोकनात् ॥ ५०३ ॥ सामग्रीसनिधानेन कनकाश्मकलङ्कवत् । तत्राथावन्न जायेत तारतम्यञ्च नो भवेत् ॥ ५०४॥ दृष्टेस्तदस्तु चेन्मूलहानिः केन निवार्यते । सर्वशास्त्र कलाभिज्ञे सर्वज्ञोक्तिर्जिनोदिता ॥ ५०५ ॥ मुख्यसर्वज्ञसंसिद्धिं गौणत्वात्साधयेदियम् । चैत्रे सिंहाभिधानेन मुख्यसिंहस्य सिद्धिवत् ॥ ५०६ ॥ न मा प्रति प्रयोगोऽयं मुक्तिहेतोनिराकृतेः । अवस्थादेशकालादिभेदागिनासु शक्तिसु ॥ ५०७ ॥ भावानामनुमानेन प्रतीतिरतिदुर्लभा । यत्नेन साधितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः ॥ ५०८ ॥ अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथा क्रियते यतः । हस्तस्पर्शादिवान्धस्य विषमे पथि धावतः ॥ ५०९ ॥ अनुमानप्रधानस्य विनिपातो न दुर्लभः । इति चेद्विन नैतेन गृह्यते महतां मनः ॥ ५१०॥ हेतुवादोऽप्रमाणं ग्रथाश्रुतिरकृत्रिमा । इतीदं सत्यमेवं किं कृत्रिमा अतिरित्यपि ॥ ५११ ॥ वाक्प्रयोगो न तथ्यः स्याद्धत्वभावाविशेषतः। मृत्वा शीर्वापि तद्धतुरेषितव्यस्त्वयापि सः ॥ ५१२॥
इष्ट तस्मिन्मयाभीष्टो विश्ववित्किं न सिध्यति । ततस्तत्प्रोक्तसूक्तेन विरुद्ध नेष्यते बुधैः ॥ ५१३॥ हैं। पुरुषकृत रचना होनेसे प्राह्य नहीं हैं। यथार्थमें संसारमें जितने पुरुष हैं वे सभी रागादि अविद्यासे दृषित हैं अतः उनके द्वारा बनाये हुए आगम प्रमाण कैसे हो सकते हैं ? ॥ ४६६-५००। इसके उत्तरमें श्रावकने कहा कि चकि तुमने पदार्थका अच्छी तरह विचार नहीं किया है इसलिए तुम्हारे वचन सारताको प्राप्त नहीं हैं-ठीक नहीं हैं। तुमने जो कहा है कि संसारके सभी पुरुष रागादि अविद्यासे दूषित हैं यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि किसी पुरुषमें राग आदि अविद्याओंका निर्मूल क्षय हो जाना संभव है। तुम युक्तिवादका अनुसरण करनेवाले विद्वान् हो अतः तुम्हारे लिए सर्वज्ञवीतरागकी सिद्धि का प्रयोग किया जाता है ॥ ५०१-५०२॥ रागादिक भावों और अविद्यामें तारतम्य देखा जाता है अतः किसी पुरुषमें अविद्याके साथ-साथ रागादिक भाव सर्वथा अभावको प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार सामग्री मिलनेसे सुवर्ण पाषाणकी कीट कालिमा आदि दोष दूर हो जाते हैं उसी प्रकार तपश्चरण आदि सामग्री मिलनेपर पुरुषके रागादिक दोष भी दूर हो सकते हैं। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो उनमें तारतम्य-हीनाधिकपना भी सिद्ध नहीं हो सकेगा परन्तु तारतम्य देखा जाता है इसलिए रागादि दोषोंकी निर्मूल हानिको कौन रोक सकता है। समस्त शास्त्रों और कलाओंके जानने वाले मनुष्यको लोग सर्वज्ञ कह देते हैं सो उनकी यह सर्वज्ञकी गौण युक्ति ही मुख्य सर्वज्ञको सिद्ध कर देती है जिस प्रकार कि चैत्र नामक किसी पुरुषको सिंह कह देनेसे मुख्य सिंहकी सिद्धि हो जाती है।५०३-५०६॥ 'कदाचित् यह कहा जाय कि सर्वज्ञ सिद्ध करनेका यह प्रयोग मेरे लिए नहीं हो सकता क्योंकि आपने जो मोक्षका कारण बतलाया है उसका निराकरण किया जा चुका है। अवस्था देश-काल आदिके भेदसे शक्तियाँ भिन्न-भिन्न प्रकारकी हैं इसलिए रागादि दोषोंकी हीनाधिकता तो संभव है परन्तु उनका सर्वथा अभाव संभव नहीं है। अनुमानके द्वारा भावोंकी प्रतीति करना अत्यन्त दुर्लभ है क्योंकि बड़े कुशल अनुमाता यन पूर्वक जिस पदार्थको सिद्ध करते हैं अन्यप्रवादियोंकी ओरसे वह पदार्थ अन्यथा सिद्ध कर दिया जाता है। जिस प्रकार केवल हाथके स्पर्शसे विषय-मार्गमें दौड़ने वाले अन्धे मनुष्यका मार्गमें पड़जाना दुर्लभ नहीं है उसीप्रकार अनुमानको प्रधान मानकर चलने वाले पुरुषका भी पड़ जाना दुर्लभ नहीं है। हे विप्र ! यदि तुम ऐसा कहते हो तो इससे महापुरुषोंका मन आकर्षित नहीं हो सकता' ॥५०७-५१०॥ इसका भी कारण यह है कि यदि हेतुवादको अप्रमाण मान लिया जाता है तो जिस प्रकार 'वेद अकृत्रिम हैं-अपौरुषेय हैं। आपका यह कहना सत्य है तो उसी प्रकार 'वेद कृत्रिम हैं-पौरुषेय हैं। हमारा यह कहना भी सत्य ही क्यों नहीं होना चाहिये ? हेतुके अभावकी बात कहो तो वह दोनों ओर समान है। इस प्रकार मर-सड़ कर भी आपको हेतुवाद स्वीकृत करना ही पड़ेगा और जब आप इस तरह हेतुवाद स्वीकृत कर लेते है तब मेरे द्वारा
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