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महापुराणे उत्तरपुराणा श्रुत्वा तद्वचनं विप्रस्तीर्थमौब्यं निराकरोत् । अथ तत्रैव पञ्चाग्निमध्येऽन्यैर्दुस्सहं तपः ॥ ४८८ ॥ कुर्वतस्तापसस्योः प्रज्वलद्वतिसंहतौ । व्यञ्जयन्प्राणिनां घातं षड्भेदानामनारतम् ॥ ४८९ ॥ तस्य पाषण्डमौढ्यश्च युक्तिभिः स निराकृत । गोमांसभक्षणागम्यागमायैः पतितेक्षणात् ॥ ४९०॥ वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात् ॥ ४९१ ॥ नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवार । आकृतिग्रहणासस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥ ४९२ ॥ जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युनायो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः ॥ ४९३ ॥ अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसन्ततः । तद्धतुनामगोत्राब्यजीवाविच्छिन्नसम्भवात् ॥ ४९४ ।। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तजातिसन्ततिः । एवं वर्णविभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ॥ ४९५ ॥ इत्यादिहेतुभिर्जातिमौल्यमस्य निराकरोत् । वटेऽस्मिन् खलु विरेशो वसतीत्येवमादिकम् ॥४९६॥ वाक्यं श्रद्धाय तद्योग्यमाचरन्तो महीभुजः। किं न जानन्ति लोकस्य मार्गोयं प्रथितो महान् ॥ ४९७ ॥ न त्यक्तुं शक्य इत्यादि न ग्राह्यं लौकिकं वचः । आप्तोक्तागमबाह्यत्वान्मत्तोन्मत्तकवाक्यवत् ॥ ४९८ ॥ इति तल्लोकमौव्यञ्च निरास्थदय सोऽब्रवीत् । आप्तोक्तागमवैमुख्यादिति हेतुर्न मां प्रति ॥ ४९९ ॥ साड्याद्याप्तप्रवादानां पौरुषेयत्वदोषतः । दूषिताः पुरुषाः सर्वे बाढं रागाद्यविद्यया ॥ ५० ॥
ज्ञान, चारित्र तथा तप इन चारके द्वारा पुण्यका बन्ध होता है। और अन्तमें इन्हींसे मोक्ष प्राप्त होता है। यह जिनेन्द्र देवका तत्त्व है-मूल उपदेश है, इसे तू ग्रहण कर । ऐसा उस श्रावकने ब्राह्मणसे कहा ।। ४८६-४८७ ॥ श्रावकके उक्त वचन सुनकर ब्राह्मणने तीर्थमूढ़ता छोड़ दी। तदनन्तर वहीं एक तापस, पञ्चाग्नियोंके मध्यमें अन्य लोगोंके द्वारा दुःसह-कठिन तप कर रहा था। वहाँ जलती हुई अग्निके बीच में छह कायके जीवोंका जो निरन्तर घात होता था उसे दिखलाकर श्रावकने युक्तियोंके द्वारा उस ब्राह्मणकी पाण्डिमूढ़ता भी दूर कर दी। तदनन्तर जातिमूढ़ता दूर करनेके लिए वह श्रावक कहने लगा कि गोमांस भक्षण और अगम्यस्त्रीसेवन आदिसेलोग पतित हो जाते हैं यह देखा जाता है, इस शरीरमें वर्ण तथा आकृतिकी अपेक्षा कुछ भी भेद देखनेमें नहीं आता
और ब्राह्मणी आदिमें शूद्र आदिके द्वारा गर्भधारण किया जाना देखा जाता है इसलिए जान पड़ता है कि मनुष्योंमें गाय और घोड़ेके समान जाति कृत कुछ भी भेद नहीं है यदि आकृतिमें कुछ भेद होता तो जातिकृत भेद माना जाता परन्तु ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य और शूद्रमें आकृति भेद नहीं है अतः उनमें जातिकी कल्पना करना अन्यथा है। जिनकी जाति तथा गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यानके कारण हैं वे त्रिवर्ण कहलाते हैं और बाकी शूद्र कहे गये हैं। विदेह क्षेत्रमें मोक्ष जानेके योग्य जातिका की विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहीं उस जातिमें कारणभूत नाम और गोत्रसे सहित जीवोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें चतुर्थकालमें ही जातिकी परम्परा चलती है अन्य कालोंमें नहीं। जिनागममें मनुष्योंका वर्णविभाग इस प्रकार बतलाया गया है॥४८८-४६५॥ इत्यादि हेतुओंके द्वारा श्रावकने ब्राह्मणकी जातिमूढ़ता दूर कर दी। इस वटवृक्षपर कुबेर रहता है' इत्यादि वाक्योंका विश्वासकर राजा लोग जो उसके योग्य आचरण करते हैं, उसकी पूजा आदि करते हैं सो क्या कुछ जानते नहीं है। कुछ सचाई होगी तभी तो ऐसा करते हैं। यह लोकका मार्ग बहुत बड़ा प्रसिद्ध मार्ग है इसे छोड़ा नहीं जा सकता-लोकमें जो रूढ़ियाँ चली आ रही हैं उन्हें छोड़ना नहीं चाहिये इत्यादि लौकिक जनोंके वचन, प्राप्त भगवान्के द्वारा कहे इस अागमसे बाह्य होनेके कारण नशेसे मस्त अथवा पागल मनुष्यके वचनोंके समान ग्राह्य नहीं हैं ॥ ४६६-४६८ ॥ इस प्रकार श्रावकने उस ब्राह्मणकी लोकमूढ़ता भी दूर कर दी। तदनन्तर ब्राह्मणने श्रावकसे कहा कि तुमने जो हेतु दिया है कि प्राप्त भगवानके द्वारा कहे हुए आगमसे बाह्य होनेके कारण लौकिक वचन ग्राह्य नहीं हैं सो तुम्हारा यह हेतु मेरे प्रति लागू नहीं होता
कि सांख्य आदि आप्तजनोंके जो भी आगम विद्यमान हैं वे पौरुषेयत्व दोषसे प्रमाणभत नहीं
१ लुहि रूपम् । २ मदोन्मत्तक ल० । ३ निरस्तुदय ल•।
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