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महापुराणे उत्तरपुराणम् भवतो विप्रकन्यायां सुतोऽभूदभयावयः । स कदाचिमिजस्थानादागर्छस्त्वां समीक्षितुम् ॥ ४२९ ॥ समं जनन्या समन्दिग्रामे त्वत्तः समाकुलाः । प्रजाः समीक्ष्य ते कोपमुपायैः 'समशीशमत् ॥१५॥ नानोपायप्रवीणोयमभयाख्योऽस्तु पण्डितः । नाम्नेति विद्भिराहूतः स तदा तेन धीमता ॥ ४३ ॥ पुत्रेणानेन साधं त्वमिहाद्यैनमुपस्थितः । शृण्वन्पुराणसद्भावमित्याहाकये तद्वचः ॥ ४३२ ।। सर्व निधाय तच्चित्ते श्रद्वाभून्महती मते । जैने कुतस्तथापि स्यान्न मे व्रतपरिग्रहः ॥ ४३३ ॥ इत्यनुश्रेणिकप्रश्नादवादीद्गणनायकः । भोगसञ्जननाद्गाढमिथ्यात्वानुभवोदयात् ॥ ४३४ ॥ दुश्चरित्रान्महारम्भात्सञ्चित्यैनो निकाचितम् । नारकं बद्धवानायुस्त्वं प्रागेवान जन्मनि ॥ १३५ ॥ बद्धदेवायुषोन्यायुर्नाङ्गी स्वीकुरुते व्रतम् । श्रद्धानं तु समाधचे तस्मात्त्वं नाग्रहीतम् ॥ ४३६ ॥ पुराणश्रतसम्भूतविशुद्धया करणत्रयात् । सम्यकत्वमादिमं प्राप्य शान्तसप्तमहारजाः ॥ ४३७ ॥ अन्तर्मुहर्तकालेन सम्यक्त्वोदयभाविते । क्षायोपशमिके स्थित्वा श्रद्धाने सञ्चलात्मके ॥ ४३८ ॥ सप्तप्रकृतिनिर्मूलक्षयात्क्षायिकमागतः । आज्ञामार्गोपदेशोत्थं सूत्रबीजसमुद्भवम् ॥ ४३९ ॥ सक्षेपाद्विस्तृतेरर्थाच्चावाप्तमवगाढकम् । परमाद्यवगाढञ्च सम्यक्त्वं दशधोदितम् ॥ ४४०॥ सर्वज्ञाज्ञानिमिचेन षडद्व्यादिषु या रुचिः । साज्ञा निस्सङ्गनिश्चेलपाणिपात्रत्वलक्षणः ॥४१॥ मोक्षमार्ग इति श्रुत्वा या रुचिौगंजा त्वसौ। त्रिषष्टिपुरुषादीनां या पुराणप्ररूपणात् ॥ ४४२ ॥
की याद आनेसे त नन्दिग्रामके निवासियोंका अत्यन्त कठोर निग्रह करना चाहता था इसी इच्छासे नू ने वहाँ रहने वाले लोगोंपर इतना कठोर कर लेनेका आदेश दिया जितना कि वे सहन नहीं । कर सकते थे ।। ४२६-४२८॥ तेरे उस ब्राह्मणकी पुत्रीसे अभयकुमार नामका पुत्र हुआ था वह किसी समय अपने घरसे तेरे दर्शन करनेके लिए माताके साथ आ रहा था। जब वह नन्दिग्राममें
आया तब उसने वहाँकी प्रजाको तुझसे अत्यन्त व्यग्र देखा, इसलिए उसने वहीं ठहर कर योग्य उपायोंसे तेरा क्रोध शान्त कर दिया ॥४२१-४३०॥ तेरा वह अभय नामका पुत्र नाना उपायोंमें निपुण है इसलिए उस समय बुद्धिमानोंने उसे 'पण्डितः इस नामसे पुकारा था ॥४३१ ।। हे राजन् ! आज तू इहाँ उसी बुद्धिमान् पुत्रके साथ उपस्थित हुआ पुराण श्रवण कर रहा है। इस प्रकार गणधर स्वामीके वचन सुनकर राजा श्रेणिकने अपने हृदयमें धारण किये और कहा कि हे भगवन् ! यद्यपि मेरी जैनधर्म में श्रद्धा बहुत भारी है तो भी मैं व्रत ग्रहण क्यों नहीं कर पाता? ।। ४३२-४३३ ।। राजा श्रेणिकका प्रश्न समाप्त होनेपर गणधर स्वामीने कहा कि तूने इसी जन्ममें पहले भोगोंकी आसक्ति, तीव्र मिथ्यात्वका उदय, दुश्चरित्र और महान् आरम्भके कारण, जो बिना फल दिये नहीं छूट सकती ऐसी पापरूप नरकायुका बन्ध कर लिया है। ऐसा नियम है कि जिसने देवायुको छोड़कर अन्य आयुका बन्ध कर लिया है वह उस पर्यायमें व्रत धारण नहीं कर सकता। हाँ, सम्यग्दर्शन धारण कर सकता है। यही कारण है कि तू इच्छा रहते हुए भी व्रत धारण नहीं कर पा रहा है ।। ४३४-४३६ ।। इस प्रकार पुराणोंके सुननेसे उत्पन्न हुई विशुद्धिके द्वारा उसने अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप तीन परिणाम प्राप्त किये और उनके प्रभावसे मोहनीय कर्मकी सात प्रकृतियोंका उपशमकर प्रथम अर्थात् उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त किया ॥४३७ ॥ अन्तर्मुहूर्तके बाद उसके सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो गया जिससे चलाचलात्मक, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनमें
आ गया और उसके कुछ ही बाद सातों प्रकृतियोंका निर्मूल नाशकर वह क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त हो गया । सम्यग्दर्शन उत्पत्तिकी अपेक्षा दश प्रकारका कहा गया है-आज्ञा, मार्ग, उपदेशोत्थ, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपज, विस्तारज, अर्थज, अवगाढ और परमावगाढ़ ॥४३८।। ४४० ॥ सर्वज्ञ देवकी आज्ञाके निमित्तसे जो छह द्रव्य आदिमें श्रद्धा होती है उसे आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं। मोक्षमार्ग परिग्रह रहित है, वस्त्र रहित है और पाणिपात्रतारूप है इस प्रकार मोक्षमार्गका स्वरूप सुनकर जो श्रद्धान होता है वह मार्गज सम्यक्त्व है। तिरसेठ शलाका पुरुषोंका
१ समुपाकरोत् म०, ख० !
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