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महापुराणे उत्तरपुराणम् शान्तिरस्येति निर्दिष्टे भिषग्भिः स वनेचरः । प्रयान्त्वमी मम प्राणाः किं कृत्यमिव तैश्चलैः ॥ ३९८ ॥ व्रतं तपोधनाभ्याशे गृहीतं धर्ममिच्छता । कृतसङ्कल्पभङ्गस्य कुतस्तत्पुरुषव्रतम् ॥ ३९९ ॥ पापेनानेन मांसेन नाद्य प्राणिणिषाम्यहम् । इति नैच्छत्तदुक्त तच्छ्रुत्वा तन्मैथुनः पुरात् ॥ ४.०॥ सारसौख्यात्समागच्छन् शूरवीराभिधानकः । महागहनमध्यस्थन्यग्रोधपृथिवीरुहः ॥ ४०१॥ अधस्ताद्योषितं काञ्चिद्रदतीमभिवीक्ष्य सः। रोदिषीत्थं कुतो बृहीत्यब्रवीत्साप्युवाच तम् ॥४०२॥ शृणु चित्तं समाधाय वनयक्षी वसाम्यहम् । वने खदिरसारस्ते मैथुनो ब्याधिपीडितः ॥ ४०३ ॥ काकमांसनिवृत्त्यासौ पतिर्मम भविष्यति । गच्छंस्त्वं तं परित्यक्तमांसं भोजयितं पुनः ॥ ४०४॥ नरके घोरदुःखानां भाजनं कर्तुमिच्छसि । ततो मे रोदनं तस्मात्त्यज भद्र तवाग्रहम् ॥ ४०५॥ इति तहेवताप्रोक्तमवगम्याटवीपतिः । सम्प्राप्यातुरमालोक्य भिषक्कथितमौषधम् ॥ ४०६ ॥ त्वया मयोपनोदार्थमुपयोक्तव्यमित्यसौ । जगाद सोऽपि तद्वाक्यमनिच्छन्नेवमब्रवीत् ॥ ४०७ ॥ त्वं मे प्राणसमो बन्धुा जिजीवयिषुः स्निहा । ब्रवीत्येवं हितं नैवं जीवितं व्रतभञ्जनात् ॥ ४०८॥ दुर्गतिप्राप्तिहेतुत्वादिति तद्बतनिश्चितम् । ज्ञात्वा यक्षीप्रपञ्चं तं शूरवीरोऽप्यशेधयत् ॥ ४०९ ॥ तद्वत्तान्तं विचार्यासौ श्रावकवतपञ्चकम् । समादायाखिलं जीवितान्ते सौधर्मकल्पजः ॥ ४१०॥ देवोऽभवदनिर्देश्यः शूरवीरोऽपि दुःखितः । परलोकक्रियां कृत्वा स्वावासं समुपव्रजन् ॥ ४११ ॥ वटद्मसमीपस्थो यक्षि किं मे स मैथुनः । पतिस्तवाभवन्नेति यक्षीमाहावदच्च सा ॥ ४१२ ॥ समस्तव्रतसम्पन्नो व्यन्तरत्वपराङ्मुखः। अभूत्सौधर्मकल्पेऽसौ पतिर्मम कथं भवेत् ॥ ४१३॥
वह भील व्रत लेकर चला गया। किसी एक समय उस भीलको असाध्य बीमारी हुई तब वैद्योंने बतलाया कि कौआका मांस खानेसे यह बीमारी शान्त हो सकती है। इसके उत्तरमें भीलने दृढ़ताके साथ उत्तर दिया कि मेरे ये प्राण भले ही चले जावें ? मुझे इन चञ्चल प्राणोंसे क्या प्रयोजन है, मैंने धर्मकी इच्छासे तपस्वी- मुनिराजके समीप व्रत ग्रहण किया है। जो गृहीत व्रतका भङ्ग कर देता है उससे पुरुष व्रत कैसे हो सकता है ? मैं इस पापरूप मांसके द्वारा आज जीवित नहीं रहना चाहता। इस प्रकार कहकर उसने कौआका मांस खाना स्वीकृत नहीं किया। यह सुनकर उसका साला शूरवीर जो कि सारसौख्य नामक नगरसे आया था कहने लगा कि जब मैं यहाँ आ रहा था तब मैने. सघन वनके मध्यमें स्थित वट वृक्ष के नीचे किसी स्त्रीको रोती हुई देखा । उसे राती देख, मैंने पूछा कि तू क्यों रो रही है ? इसके उत्तरमें वह कहने लगी कि तू चित्त लगाकर सुन । मैं बनकी यक्षी हूँ और इसी वनमें रहती हूँ। तेरा बहनोई खदिरसार रोगसे पीड़ित है
और कौआका मांस त्याग करनेसे वह मेरा पति होगा! पर अब तू उसे त्याग किया हुआ मांस खिलानेके लिए जा रहा है और उसे नरक गतिके भयंकर दुःखोंका पात्र बनाना चाहता है। मैं इसीलिए रो रही हूं । हे भद्र ! अब तू अपना आग्रह छोड़ दे ॥ ४६७-४०५ । इस प्रकार देवीके वचन सुनकर शूरवीर, बीमार-खदिरसारके पास पहुंचा और उसे देखकर कहने लगा कि वैद्यने जो
औषधि बतलाई है वह और नहीं तो मेरी प्रसन्नताके लिए ही तुझे खाना चाहिये। खदिरसार उसकी बात अस्वीकृत करता हुआ कहने लगा कि तू प्राणोंके समान मेरा भाई है। स्नेह वश मुमे जीवित रखनेके लिए ही ऐसा कह रहा है परन्तु व्रत भंगकर जीवित रहना हितकारी नहीं है क्योंकि व्रत भंग करना दुर्गतिकी प्राप्तिका कारण है। जब शूरवीरको निश्चय हो गया कि यह अपने व्रतमें दृढ़ है तब उसने उसे यक्षीका वृत्तान्त बतलाया ॥४०६-४०६॥ यक्षीके वृत्तान्तका विचारकर खदिरसारने श्रावकके पांचों व्रत धारण कर लिये जिससे आयु समाप्त होनेपर वह सौधर्मस्वर्गमें अनुपम देव हुआ। इधर शूरवीर भी बहुत दुखी हुआ और पारलौकिक क्रिया करके अपने घर की ओर चला। मार्गमें वह उसी वटवृक्षके समीप खड़ा होकर उस यक्षीसे कहने लगा कि हे यक्षि ! क्या हमारा वह बहनोई तेरा पति हुआ है ? इसके उत्तरमें यक्षीने कहा कि नहीं, वह समस्त व्रतोंसे
१-काटवी प्रति ल।
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