Book Title: Uttara Purana
Author(s): Gunbhadrasuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 492
________________ महापुराणे उत्तरपुराणम् सुराधीशः म्वहस्तेन तान्प्रतीक्ष्य महामणि । ज्वलत्पटलिकामध्ये विन्यस्याभ्यर्च्य मानितान् ॥ ३०८॥ विचित्रकरवस्त्रेण पिधाय विधतान्सुरैः। स्वयं गत्वा समं क्षीरवारिराशौ न्यवेशयत् ॥ ३०१॥ तपोलल्या निगूढोऽभूदाढं बाढममूढधीः । अभ्येत्य मोक्षलक्ष्मीष्टशम्फल्येव विदग्धया ॥ ३१॥ अन्तर्ग्रन्थपरित्यागातस्य नैर्ग्रन्थ्यमावभौ । भोगिनोऽन्यस्य निर्मोकत्यागवन्नावभासते ॥ ३११॥ चतुर्थोऽप्यवबोधोऽस्य संयमेन समर्पितः। तदैवान्त्यावबोधस्य सत्यकार इवेशितुः ॥ ३१२॥ अप्रमरागुणस्थाने मुक्तिसाम्राज्यकण्ठिका । 'तपस्तेन २तदालम्बि तत्कथं स्यात्प्रमादिनः ॥ ३१३॥ चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गवलशालिनः । तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ॥ ३१४ ॥ सिंहेनैव मया प्राप्त वने मुनिमताद् व्रतम् । मत्वेवेत्येकतां तत्र सैंहीं वृत्ति समाप सः ॥ ३१५॥ अतीक्ष्णनखदंष्ट्रोऽयमक्ररोऽरक्तकेसरः । शौर्यकत्ववनस्थानैरन्वयान्मृगविद्विषम् ॥ ३१६॥ सुराः सर्वेऽपि नत्वैनमेतत्साहससंस्तवे । सक्ताः समगमन् स्वं स्वमोकः सन्तुष्टचेतसः ॥ ३१७ ॥ अथ भट्टारकोप्यस्मादगात्कायस्थितिं प्रति । कूलग्रामपुरी3 श्रीमान् व्योमगामिपुरोपमम् ॥ ३१८॥ कूलनाम महीपालो दृष्ट्वा तं भक्तिभावितः। प्रियङ्ग कुसुमागाभस्खिापरीत्य प्रदक्षिणम् ॥ ३१९ ॥ प्रणम्य पादयोर्मू "निधि वा गृहमागतम् । प्रतीक्ष्याादिभिः पूज्यस्थाने सुस्थाप्य सुव्रतम्॥३२०॥ गन्धादिभिविभूष्यतत्पादोपान्तमहीतलम् । परमानं त्रिशुभूयास्मै सोऽदितेष्टार्थसाधनम् ॥ ३२१॥ थे॥३०७ ॥ इन्द्र ने वे सब केश अपने हाथसे उठा लिये, मणियोंके देदीप्यमान पिटारेमें रखकर उनकी पूजा की, आदर सत्कार किया, अनेक प्रकारकी किरण रूपी वस्त्रसे उन्हें लपेटकर रक्स और फिर देवोंके साथ स्वयं जाकर उन्हें क्षीरसागरमें पधरा दिया ॥३०८-३०६ ॥ मोक्षलक्ष्मीकी इष्ट और चतुर दतीके समान तपोलक्ष्मीने स्वयं आकर उनका आलिङ्गन किया था । ३१०।। अंतरङ्ग परिग्रहोंका त्याग कर देनेसे उनका निर्ग्रन्थपना अच्छी तरह सुशोभित हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार साँपका केवल कांचली छोड़ना शोभा नहीं देता उसी प्रकार केवल बाह्य परिग्रहका छोड़ना शोभा नहीं देता ॥ ३११ ॥ उसी समय संयमने उन भगवान्को केवलज्ञानके वयानेके समान चौथा मनःपर्ययज्ञान भी समर्पित किया था ॥३१२॥ अप्रमत्त गुणस्थानमें जाकर उन भगवान्ने मोक्षरूपी साम्राज्यकी कण्ठी स्वरूप जो तपश्चरण प्राप्त किया था वह प्रमादी जीवको कहां सलभ है?॥३१३॥ मनःपर्ययज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले और स्वाभाविक बलसे सुशोभित उन भगवान्के पहला सामायिक चरित्र ही था क्योंकि दूसरा छेदोप प्रमादी जीवोंके ही होता है ॥३१४ ।। मैंने पहले सिंह पर्यायमें ही वनमें मुनिराजके उपदेशसे व्रत धारण किये थे यही समझकर मानो उन्होंने सिंहके साथ एकताका ध्यान रखते हुए सिंहवृत्ति धारणकी थी॥३१५ ।। यद्यपि उनके सिंहके समान तीक्ष्ण नख और तीक्ष्ण दाड़े नहीं थीं, वे सिंहके समान कर नहीं थे और न सिंहके समान उनकी गरदनपर लाल बाल ही थे फिर भी शूरवीरत अकेला रहना तथा वनमें ही निवास करना इन तीन विशेषताओंसे वे सिंहका अनुकरण करते थे॥३१६ ॥ सब देव, उन भगवान् को नमस्कारकर तथा उनके साहसकी स्तुति करनेमें लीन हो संतुष्टचित्त हो कर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥३१७॥ अथानन्तर पारणाके दिन वे भट्टारक महावीर स्वामी आहारके लिए वनसे निकले और विद्याधरोंके नगरके समान सुशोभित कूलग्राम नामकी नगरीमें पहुँचे। वहां प्रियङ्गुके फूलके समान कान्ति वाले कूल नामके राजाने भक्ति-भावसे युक्त हो उनके दर्शन किये, तीन प्रदक्षिणाएँ दी, चरणों में शिर झुकाकर नमस्कार किया और घर पर आई हुई निधिके समान माना । उत्तम व्रतोंको धारण करने वाले उन भगवान्को उस राजाने श्रेष्ठ स्थान पर बैठाया, अर्घ आदिके द्वारा उनकी पूजा की. उनके चरणोंके समीपवर्ती भूतलको गन्ध आदिकसे विभूषित किया और उन्हें मन, वचन, कायकी शुद्धिके साथ इष्ट अर्थको सिद्ध करने वाला परमान्न (खीरका आहार ) समर्पण किया। १ तपस्विना ल । तपःस्थेन इत्यपि क्वचित् । २ सतालम्भि ल०। समालम्भि ख० । ३ पुरम् इति चित । ४ श्रीमद् ल.। ५ विधिना इति कचित् । ६ पूज्यं घ., क०। ७ विशुद्धया ल०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738