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चतुःसप्ततितम पर्व
ललजिहाशतात्युग्रमारुम तमहिं विभीः । कुमारः क्रीडयामास 'मातृपर्यवसदा ॥ २९ ॥ विजम्भमाणहर्षाम्भोनिधिः सङ्गमकोऽमरः । स्तुत्वा भवान्महावीर इति नाम चकार सः ॥ २९५॥ त्रिंशच्छरजिस्तस्यैवं कौमारमगमद् वयः । ततोऽन्येद्यमतिज्ञानक्षयोपशमभेदतः ॥ २९६ ॥ समुत्पनमहाबोधिः स्मृतपूर्वभवान्तरः। लौकान्तिकामरैः प्राप्य प्रस्तुतस्तुतिभिः स्तुतः २९७ ॥ सकलामरसन्दोहकृतनिष्क्रमणक्रियः । स्ववाक्प्रीणितसद्धन्धुसम्भावितविसर्जनः ॥ २९८ ॥ चन्द्रप्रभाख्यशिबिकामधिरूढो ढव्रतः । उढां परिवृटैनणां ततो विद्याधराधिपः ॥ २९९ ॥ ततश्चानिमिषाधीशैश्चलचामरसंहतिः। प्रभ्रमभ्रमरारावैः कोकिलालापनैरपि ॥ ३०० ॥ आयद्वा प्रसूनौधैः प्रहसदा प्रमोदतः। पल्लवैरनुरागं वा स्वकीयं सम्प्रकाशयत् ॥ ३.१ ॥ नाथः षण्डवनं प्राप्य स्वयानादवरुह्य सः । श्रेष्ठः षष्ठोपवासेन 'स्वप्रभापटलावृते ॥ ३०२॥ निविश्योदङ्मुखो वीरो रुन्दरमशिलातले । दशम्यां मार्गशीर्षस्य कृष्णायां शशिनि श्रिते ॥ ३०३ ॥ हस्तोत्तरक्षयोर्मध्यं भार्ग उचापास्तलक्ष्मणि । दिवसावसितौ धीरः संयमाभिमुखोऽभवत् ॥ ३०४ ॥ वस्त्राभरणमाल्यानि' स्वयं शक्रः समाददे । मुक्कान्येतेन पूतानि मत्वा माहात्म्यमीरशम् ॥ ३०५ ॥ अङ्गरागोडालनोऽस्य सगन्धोऽहं कथं मया। मोच्योऽयमिति मत्वेव स्थितः शोभा समुद्वहन् ॥३०६ ॥ मलिनाः कुटिला मुग्धैः पूज्यास्त्याज्या मुमुक्षुभिः । केशाः क्लेशसमास्तेन यना मूलात्समुद्धताः॥३०७॥
जो लहलहाती हुई सौ जिलाओंसे अत्यन्त भयंकर दिख रहा था ऐसे उस सर्पपर चढ़कर कुमार हावीरने निर्भय हो उस समय इस प्रकार क्रीड़ा की जिस प्रकार कि माताके पलंगपर किया करते थे ।। २६४ ॥ कुमारकी इस क्रीड़ासे जिसका हर्षरूपी सागर उमड़ रहा था ऐसे उस संगम देवने भगवानकी स्तुति की और 'महावीर यह नाम रक्खा ॥२६५ ॥ इस प्रकार तीस वर्षोंमें भगवानका कुमार काल व्यतीत हुअा। तदनन्तर दूसरे ही दिन मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषसे उन्हें आत्मज्ञान प्रकट हो गया और पूर्वभवका स्मरण हो उठा। उसी समय स्तुति पढ़ते हुए लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की ।। २६६-२६७॥ समस्त देवोंके समूहने आकर उनके निष्क्रमण कल्याणकी क्रिया की, उन्होंने अपने मधुर वचनोंसे बन्धुजनोंको प्रसन्नकर उनसे विदा ली। तदनन्तर व्रतोंको दृढ़तासे पालन करनेवाले वे भगवान् चन्द्रप्रभा नामकी पालकीपर सवार हुए। उस पालकीको सबसे पहले भूमिगोचरी राजाओंने, फिर विद्याधर राजाओंने और फिर इन्द्रोंने उठाया था। उनके दोनों ओर चामरोंके समूह ढुल रहे थे। इस प्रकार वे षण्ड नामके उस वनमें जा पहुँचे जो कि भ्रमण करते हुए भ्रमरोंके शब्दों और कोकिलाओंकी कमनीय कूकसे ऐसा जान पड़ता था मानो बुला ही रहा हो, फूलोंके समूहसे ऐसा जान पड़ता था मानो हर्षसे हँस ही रहा हो, और लाल-लाल पल्लवोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो अपना अनुराग ही प्रकट कर रहा हो ॥ २६८-३०१ ।। अतिशय श्रेष्ठ भगवान् महावीर, षण्डवनमें पहुंचकर अपनी पालकीसे उतर गये और अपनी ही कान्तिके समूहसे घिरी हुई रत्नमयी बड़ी शिलापर उत्तरकी ओर मुँहकर तेलाका नियम ले विराजमान हो गये। इस तरह मंगसिर वदी दशमीके दिन जब कि निर्मल चन्द्रमा हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रके मध्यमें था, तब संध्याके समय अतिशय धीर-वीर भगवान महावीरने संयम धारण किया। ३०२-३०४॥ भगवान्ने जो वस्त्र, आभरण त आदि उतारकर फेंक दिये थे उन्हें इन्द्रने स्वयं उठा लिया सो ठीक ही है क्योंकि भगवानका माहाम्य ही ऐसा था ।। ३०५ ।। उस समय भगवान्के शरीरमें जो सुगन्धित अङ्गराग लगा हुआ था वह सोच रहा था कि मैं इन उत्तम भगवान्को कैसे छोड़ दूं? ऐसा विचारकर ही वह मानो उनके शरीरमें स्थित रहकर शोभाको प्राप्त हो रहा था ।। ३०६ ॥ मलिन और कुटिल पदार्थ अज्ञानी जनोंके द्वारा पूज्य होते हैं परन्तु मुमुक्षु लोग उन्हें त्याज्य समझते हैं ऐसा जानकर ही मानो उन तरुण भगवान्ने मलिन और कुटिल ( काले और धुंधुराले ) केश जड़से उखाड़कर दूर फेंक दिये
१ पितृ इति कचित् । २ तत्प्रभापटलान्विते क०, ग०, घ० । ३ वापास्त ल० । ४ माल्यादि-म.।
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