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चतुःसप्ततितमं पर्व
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भानुमान् बन्धुपद्मानां भुवनत्रयनायकः । दायको मुक्तिसौख्यस्य श्रायकः सर्वदेहिनाम् ॥ २६४ ॥ भर्मतिर्भवध्वंसी मर्मभित्कर्मविद्विषाम् । धर्मतीर्थस्य धौरेयो निर्मलः 'शर्मवारिधिः ॥ २६५ ॥ प्राच्यां दिशीव बालाक यामिन्यामिव चन्द्रमाः । पद्मायामिव गङ्गौघो धान्यामिव धनोत्करः ॥ २६६ ॥ वाग्वध्वामिव वामाशिर्लक्ष्म्यामिव सुखोदयः । तस्यां सुतोऽच्युताधीशो लोकालोकैकभास्करः ॥ २६७ ॥ मानुषाणां सुराणाञ्च तिरश्वाखं चकार सा । तत्प्रसूत्या पृथुं प्रीतिं तत्सत्यं प्रियकारिणी ॥ २६८ ॥ मुखाम्भोजानि सर्वेषां तदाकस्मादधुः श्रियम् । प्रमुक्तानि प्रसूनानि प्रमोदात्राणि वा दिवा ॥ २६९ ॥ ननादानकसङ्घातो ननाट प्रमदागणः । जगाद गायकानीकः पपाठौघोऽपि वन्दिनाम् ॥ २७० ॥ अवातरन्सुराः सर्वेऽप्युद्वास्यावासमात्मानः । मायाशिशुं पुरोधाय मातुः सौधर्मनायकः ॥ २७१ ॥ नागेन्द्रस्कन्धमारोप्य बालं भास्करभास्वरम् । तत्तेजसा दिशो विश्वाः काशयन्नमरावृतः ॥ २७२ ॥ सम्प्राप्य मेरुमारोप्य शिलायां सिंहविष्टरम् । अभिषिच्य ज्वलत्कुम्भैः क्षीरसागरवारिभिः २७३ ॥ विशुद्धपुद्गलारब्धदेहस्य विमलात्मनः । शुद्धिरेतस्य काम्भोभिर्दूष्यैरशुचिभिः स्वयम् ॥ २७४ ॥ चोदितास्तीर्थकृन्नाम्ना स्वाम्नायोऽयं समागतः । इति कैर्यमस्यैत्य कृताभिषवणा वयम् ॥ २७५ ॥ अलं तदिति तं भक्तया विभूष्योद्घविभूषणैः । वीरः श्रीवर्धमान रचेत्यस्याख्याद्वितयं व्यधात् ॥ २७६॥ ततस्तं स समानीय सर्वामरसमन्वितः । मातुरङ्गे निवेश्योच्चै विहितानन्दनाटकः ॥ २७७ ॥ विभूष्य पितरौ चास्य तयोर्विहितसंमदः । श्रीवर्धमानमानम्य स्वं धाम समगात्सुरैः ॥ २७८ ॥
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लक्ष्मीका आधार था, भाईरूपी कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्य था, तीनों लोकोंका नायक था, मोक्षका सुख देनेवाला था, समस्त प्राणियोंकी रक्षा करनेवाला था, सूर्यके समान कान्तिवाला था, संसारको नष्ट करनेवाला था, कर्मरूपी शत्रुके मर्मको भेदन करनेवाला था, धर्मरूपी तीर्थका भार धारण करनेवाला था, निर्मल था, सुखका सागर था, और लोक तथा अलोकको प्रकाशित करनेके लिए एक सूर्य के समान था ।। २६२-२६७ ।। रानी प्रियकारिणीने उस बालकको जन्म देकर मनुष्यों, देवों और तिर्यश्र्चोंको बहुत भारी प्रेम उत्पन्न किया था इसलिए उसका प्रियकारिणी नाम सार्थक हुआ था || २६८ ।। उस समय सबके मुख-कमलोंने अकस्मात् ही शोभा धारण की थी और आकाश से आनन्द के आँसुओं के समान फूलोंकी वर्षा हुई थी ।। २६६ || उस समय नगाड़ोका समूह शब्द कर रहा था, स्त्रियोंका समूह नृत्य कर रहा था, गानेवालोंका समूह गा रहा था और बन्दीजनों का समूह मङ्गल पाठ पढ़ रहा था ॥ २७० ॥ सब देव लोग अपने-अपने निवासस्थान को ऊजड़ बनाकर नीचे उतर आये थे । तदनन्तर, सौधर्मेन्द्रने मायामय बालकको माताके सामने रखकर सूर्य के समान देदीप्यमान उस बालकको ऐरावत हाथीके कन्धेपर विराजमान किया । बालकके तेजसे दशों दिशाओं को प्रकाशित करता और देवोंसे घिरा हुआ वह इन्द्र सुमेरु पर्वतपर पहुँचा। वहाँ उसने जिनबालकको पाण्डुकशिला पर विद्यमान सिंहासनपर विराजमान किया और क्षीरसागर के जलसे भरे हुए देदीप्यमान कलशोंसे उनका अभिषेककर निम्न प्रकार स्तुति की । वह कहने लगा कि हे भगवन्! आपकी आत्मा अत्यन्त निर्मल है, तथा आपका यह शरीर विशुद्ध पुद्गल परमाणुओं से बना हुआ है इसलिए स्वयं अपवित्र निन्दनीय जलके द्वारा इनकी शुद्धि कैसे हो सकती है ? हम लोगोंने जो अभिषेक किया है वह आपके तीर्थंकर नामकर्मके द्वारा प्रेरित होकर ही किया है अथवा यह एक आम्नाय है— तीर्थंकरके जन्म के समय होनेवाली एक विशिष्ट क्रिया ही है इसीलिए हम लोग आकर आपकी किङ्करताको प्राप्त हुए हैं ।। २७१ - २७५ ।। अधिक कहने से क्या ? इन्द्रने उन्हें भक्तिपूर्वक उत्तमोत्तम आभूषणोंसे विभूषितकर उनके वीर और श्रीवर्धमान इस प्रकार दो नाम रक्खे || २७६ ।। तदनन्तर सब देवोंसे घिरे हुए इन्द्रने, जिन- बालकको वापिस लाकर माताकी गोद में विराजमान किया, बड़े उत्सवसे आनन्द नामका नाटक किया, माता पिताको आभूषण पहनाये, उत्सव मनाया और यह सब कर चुकनेके बाद श्रीवधमान स्वामीको नमस्कारवर देवोंके साथ अपने स्थानपर चला गया ।। २७७-२७८ ।।
१ शमवारिधिः ल० । २ जगौ च म०, ल० । ३ वीरः श्रीवर्द्धमानरतेष्वित्या-ल० । ४ स्वधाम० ल० 1
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