________________
४६२
महापुराणे उत्तरपुराणम् पार्वेशतीर्थसन्ताने पञ्चाशदद्विशताब्दके। तदभ्यन्तरवायुर्महावीरोऽत्र जातवान् ॥ २७९ ॥ द्वासप्ततिसमाः किञ्चिदूनास्तस्यायुषः स्थितिः । ससारनिमितोत्सेधः सर्वलक्षणभूषितः ॥ २८०॥ निःस्वेदत्वादिनिर्दिष्टदशात्मजगुणोदयः ॥ १भयससकनिर्मुक्तः सर्वचेष्टाविराजितः ॥ २८१ ॥ सञ्जयस्यार्थसन्देहे सम्जाते विजयस्य च । जन्मानन्तरमेवैनमभ्येत्यालोकमानतः ॥ २८२ ॥ तत्सन्देहे' गते ताभ्यां चारणाभ्यां स्वभक्तितः । अस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाहृतः ॥ २८३ ॥ अथिनः किं पुनर्वाच्याः शब्दाश्च गुणगोचराः । अप्राप्ताः परेष्वस्मिन्नर्थवन्तोऽभवन् यदि ॥ २८४ ॥ त्यागेऽयमेव दोषोऽस्य शब्दा "दोषाभिधायिनः । पुष्कलार्थाः परत्रास्माद्ता दूरमनर्थकाः ॥ २८५ ॥ न गोमिन्यां न कीयां वा प्रीतिरस्याभवद्विभोः । गुणेष्विव सुलेश्यानां प्रायेण हि गुणाः प्रियाः ॥२८६॥ तस्य कालवयोवाञ्छावशेनैलबिलः स्वयम् । भोगोपभोगवस्तूनि स्वर्गसाराण्यहदिवम् ॥२८७ ॥ शक्राज्ञया समानीय व्ययं प्रावर्तयत्सदा । अन्येद्यः स्वर्गनाथस्य सभायामभवत्कथा ॥ २८८ ॥ देवानामधुना शूरो वीरस्वामीति तच्छृतेः । देवः सङ्गमको नाम सम्प्राप्तस्तं परीक्षितुम् ॥ २८९ ॥ दृष्ट्वोद्यानवने राजकुमारैर्बहुभिः सह । काकपक्षधरैरेकवयोभिर्बाल्यचोदितम् ॥ २९०॥ कुमारं भास्वराकारं द्रमक्रीडापरायणम् । स विभीषयितुं वान्छन् महानागाकृतिं दधत् ॥ २९१ ॥ मूलात्प्रभृति भूजस्य यावत्स्कन्धमवेष्टतः । विटपेभ्यो निपत्याशु धरित्री भयविहलाः ॥ २९२॥ प्रपलायन्त तं दृष्ट्रा बालाः सर्वे यथायथम् । महाभये समुत्पने महतोऽन्यो न तिष्ठति ॥ २९३ ॥
__ श्री पाश्वनाथ तीर्थंकरके बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जानेपर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे उनकी आयु भी इसीमें शामिल है। कुछ कम बहत्तर वर्षकी उनकी आयु थी, वे सात हाथ ऊँचे थे, सब लक्षणोंसे विभूषित थे, पसीना नहीं आना आदि दशगुण उनके जन्म से ही थे, वे सात भयोंसे रहित थे और सब तरहकी चेष्टाओंसे सुशोभित थे ।। २७६-२८१ ।। एक बार सञ्जय
और विजय नामके दो चारणमुनियोंको किसी पदार्थमें संदेह उत्पन्न हुआ था परन्तु भगवान्के जन्मके बाद ही वे उनके समीप आये और उनके दर्शन मात्रसे ही उनका संदेह दूर हो गया इसलिए उन्होंने बड़ी भक्तिसे कहा था कि यह बालक सन्मति तीर्थकर होनेवाला है, अर्थात् उन्होंने उनका सन्मति नाम रक्खा था ।। २८२-२८३ ॥ गुणोंको कहनेवाले सार्थक शब्दोंकी तो बात ही क्या थी श्रीवीरनाथको छोड़कर अन्यत्र जिनका गुणवाचक अर्थ नहीं होता ऐसे शब्द भी श्रीवीरनाथमें प्रयुक्त होकर सार्थक हो जाते थे ।। २८४ ।। उन भगवान्के त्यागमें यही दोष था कि दोषोंको कहनेवाले शब्द जहाँ अन्य लोगोंके पास जाकर खूब सार्थक हो जाते थे वहां वे ही शब्द उन भगवान्के पास आकर दूरसे ही अनर्थक हो जाते थे ।। २८५ ।। उन भगवान्की जैसी प्रीति एणोंमें थी वैसी न लक्ष्मीमें थी और न कीर्तिमें ही थी। सो ठीक ही है क्योंकि शुभलेश्याके धारक पुरुषोंको गुण ही प्यारे होते हैं ।। २८६ ॥ इन्द्रकी आज्ञासे कुवेर प्रतिदिन उन भगवान्के समय आयु और इच्छाके अनुसार स्वर्गकी सारभूत भोगोपभोगकी सब वस्तुएँ स्वयं लाया करता था और सदा खर्च करवाया करता था। किसी एक दिन इन्द्रकी सभामें देवोंमें यह चर्चा चल रही थी कि इस समय सबसे अधिक शूरवीर श्रीवर्धमान स्वामी ही हैं। यह सुनकर एक सङ्गम नामका देव उनकी परीक्षा करनेके लिए आया ॥ २८७-२८६ ।। आते ही उस देवने देखा कि देदीप्यमान आकारके धारक बालक वर्द्धमान, बाल्यावस्थासे प्रेरित हो, बालकों जैसे केश धारण करनेवाले तथा समान अवस्थाके धारक अनेक राजकुमारोंके साथ बगीचामें एक वृक्षपर चढ़े हुए क्रीड़ा करनेमें तत्पर हैं। यह देख संगम नामका देव उन्हें टरवानेकी इच्छासे किसी बड़े सांपका रूप धारणकर उस वृक्षकी जड़से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया। सब बालक उसे देखकर भयसे काँप उठे और शीघ्र ही डालियोंपरसे नीचे जमीनपर कूदकर जिस किसी तरह भाग गये सो ठीक ही है क्योंकि महाभय उपस्थित होनेपर महापुरुषके सिवाय अन्य कोई नहीं ठहर सकता है ॥२६०-२९३ ।।
१मदसप्तक-ल०। २ तत्सन्देहगते ल.। ३त्यागोऽयमेव ल०। ४ दोषोऽभिधायिनः क., म. +-ण्यार्निशम् ख०, ल०१६-मधिष्ठितः.ल.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org