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त्रिसप्ततितम पर्व
बभूवतुरहीन्द्रश्च तत्पत्नी च पृथुश्रियो । ततस्त्रिंशत्समामानकुमारसमये' गते ॥ ११९ । साकेतनगराधीशो 'जयसेनो महीपतिः। भगलीदेशसातहयादिप्राभृतान्वितम् ॥ १२०॥ अन्यदासौ निसृष्टार्थ प्राहिणोत्पार्श्वसनिधिम् । गृहीत्वोपायन पूजयित्वा दूतोत्तम मुदा ॥ १२१॥ साकेतस्य विभूतिं तं कुमारः परिपृष्टवान् । सोऽपि भट्टारकं पूर्व वर्णयित्वा पुरुं पुरम् ॥ १२२॥ पश्चाद्वयावर्णयामास प्राज्ञा हि क्रमवेदिनः । श्रुत्वा तत्तत्र किक्षातस्तीर्थकृनामबन्धनात् ॥ १२३ ॥ एष एव पुरुर्मुक्तिमापदित्युपयोगवान् । 'साक्षात्कृतनिजातीतसर्वप्रभवसन्ततिः॥१२४ ॥ विजम्भितमतिज्ञानक्षयोपशमवैभवात् । लब्धबोधिः पुनलौकान्तिकदेवप्रबोधितः ॥ १२५ ॥ तत्क्षणागतदेवेन्द्रप्रमुखामरनिर्मित- प्रसिद्धमध्यकल्याणस्नपनादिमहोत्सवः ॥ १२६ ॥ प्रत्येययुक्तिमद्वाग्भिः कृतबन्धुविसर्जनः । आरुह्य शिबिका रूढां विमलाभिधया विभुः ॥ १२७ ॥ विधायाष्टममाहारत्यागमश्ववने महा-। शिलातले महासत्त्वः पल्यङ्कासनमास्थितः ॥ १२८ ॥ उत्तराभिमुखः' पौषे मासे पक्षे सितेतरे । एकादश्यां सुपूर्वाहे समं त्रिशतभूभुजैः ॥ १२९ ॥ कृतसिद्धनमस्कारो दीक्षालक्ष्मी समाददे। दूतिकां मुक्तिकन्याया मान्यां कृत्यप्रसाधिकाम् ॥ १३०॥ केशान्विमोचितांस्तस्य मुष्टिभिः पञ्चभिः सुरेट् । समभ्यादरानीस्वा न्यक्षिपक्षीरवारिधौ ॥ १३१ ॥ आत्तसामायिकः शुद्धया चतुर्थज्ञानभास्वरः । गुल्मखेटपुरं कायस्थित्यर्थं समुपेयिवान् ॥ १३२ ॥ तत्र धन्याख्यभूपालः श्यामवर्णोऽष्टमङ्गलैः । प्रतिगृह्याशनं शुद्धं दत्वापत्तक्रियोचितम् ॥ १३३ ॥
उपदेशसे शान्ति भावको प्राप्त हुए और मरकर बहुत भारी लक्ष्मीको धारण करनेवाले धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। तदनन्तर भगवान् पार्श्वनाथका जब तीस वर्ष प्रमाण कुमारकाल बीत गया तब एक दिन अयोध्याके राजा जयसेनने भगली देशमें उत्पन्न हुए घोड़े आदिकी भेंटके साथ अपना दूत भगवान पार्श्वनाथके समीप भेजा। भगवान् पाश्र्वनाथने भेंट लेकर उस श्रेष्ठ दूतका हर्षपूर्वक बड़ा सन्मान किया और उससे अयोध्याकी विभूति पूछी। इसके उत्तरमें दूतने सबसे पहले भगवान वृषभदेवका वर्णन किया और उसके पश्चात् अयोध्या नगरका हाल कहा सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमान लोग अनुक्रमको जानते ही हैं। दूतके वचन सुनकर भगवान् विचारने लगे कि मुझे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध हुआ है इससे क्या लाभ हुआ ? भगवान् वृषभदेवको ही धन्य है कि जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया। ऐसा विचार करते ही उन्होंने अपने अतीत भवोंकी परम्पराका साक्षात्कार कर लिया-पिछले सब देख लिये ॥ ११५-१२४ ।। मतिज्ञानावरण कर्मके बढ़ते हुए क्षयोपशमके वैभवसे उन्हें पात्मज्ञान प्राप्त हो गया और लौकान्तिक देवोंने आकर उन्हें सम्बोधित किया। उसी समय इन्द्र श्रादि देवोंने आकर प्रसिद्ध दीक्षा-कल्याणकका अभिषेक आदि महोत्सव मनाया ।। १२५-२२६ ।। तदनन्तर भगवान्, विश्वास करने योग्य युक्तियुक्त वचनोंके द्वारा भाईबन्धुओंको विदाकर विमला नामकी पालकीपर सवार हो अश्ववनमें पहुंचे। वहां अतिशय धीर वीर भगवान् तेलाका नियम लेकर एक बड़ी शिलातल पर उत्तराभिमुख हो पर्यकासनसे विराजमान हुए । इस प्रकार पौषकृष्ण एकादशीके दिन प्रातःकालके समय उन्होंने सिद्ध भगवानको नमस्कार कर तीन सौ राजाओंके साथ दीक्षा-रूपी लक्ष्मी स्वीकृत कर ली। वह दीक्षा-लक्ष्मी क्या थी? मानो कार्य सिद्ध करनेवाली मुक्ति रूपी कन्याकी माननीय दूती थी ।। १२७-१३०।। भगवान्ने पञ्च मुष्टियोंके द्वारा उखाड़कर जो केश दूर फेंक दिये थे इन्द्रने उनकी पूजा की तथा बड़े आदरसे ले जाकर उन्हें क्षीरसमुद्र में डाल दिया ।। १३१ ।। जिन्होंने दीक्षा लेते ही सामायिक चारित्र प्राप्त किया है और विशुद्धताके कारण प्राप्त हुए चतुर्थ-मनःपर्ययज्ञानसे देदीप्यमान हैं ऐसे भगवान् पारणाके दिन आहार लेनेके लिए गुल्मखेट नामके नगरमें गये ।। १३२ ।। यहाँ श्यामवर्ण वाले धन्य नामक राजाने अष्ट मङ्गल द्रव्यों के द्वारा पहगाहकर उन्हें शुद्ध आहार दिया और श्राहार देकर इस क्रियाके
१ कुमारे ल०। २ जयसेनमही-ल०। ३ वृषभदेवम् । ४ प्रज्ञा क०, ख०, ग०। ५ पुनमुक्ति ल०।६ साक्षात्कृतविजानीत ल० (१)। ७ वैभवः क०, ख०, घ०। ८ उत्तराभिमुखे ल०। भास्करःला
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