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चतुःसप्ततितमं पर्व
वर्धमानो जिनः श्रीमानामान्वर्थ समुद्वहन् । देयान्मे वृद्धिमुद्धतघातिकर्मविनिर्मिताम् ॥१॥ तत्त्वार्थनिर्णयात्प्राप्य सन्मतित्वं सुबोधवाक् । पूज्यो देवागमाद्वात्राकलङ्को बभूविथ ॥ २॥ वीरसेनो महावीरो वीरसेनेन्द्रतां गतः । वीरसेनेन्द्रवन्द्याघ्रिवीरसेनेन भावितः ॥ ३॥ देवालोकस्तवैवैको लोकालोकावलोकने । किमस्ति व्यस्तमप्यस्मिन्ननेनानवलोकितम् ॥४॥ रूपमेव तव ब्रूते माथ कोपायपोहनम् । मणेर्मलस्य वैकल्यं महतः केन कथ्यते ॥ ५ ॥ अतिक्रम्य कुतीर्थानि तव तीर्थ प्रवर्तते । सम्प्रत्यपीति नुत्वानु पुराणं तत्प्रवक्ष्यते ॥ ६ ॥ महापुराणवाराशिपारावारप्रतिष्ठया। जिनसेनानुगामित्वमस्माभिनिर्विवक्षुभिः ॥ ७ ॥ अगाधोऽयं पुराणाब्धिरपारश्च मतिर्मम । पश्योचाना सपारा च तं तितीर्घः किलैतया ॥ ८ ॥ मतिरस्तु ममैषाल्पा पुराणं महदस्त्विदम् । नावेवाम्भोनिधेरस्य प्राप्तो पारमेतया ॥ ९ ॥ कथाकथकयोस्तावद्वर्णना प्राविधीयते । दोर्ष ताभ्यामदोषाभ्यां पुराणं नोपढौकते ॥१०॥ सा कथा यां समाकर्ण्य हेयोपादेयनिर्णयः । कर्णकटीभिरन्याभिः किं कथाभिहितार्थिनाम् ॥११॥ रागादिदोषनिर्मुक्को निरपेक्षोपकारकृत् । भव्यानां दिव्यया वाचा कथकः स हि कथ्यते ॥१२॥
अथानन्तर-सार्थक नामको धारण करनेवाले श्रीमान् वर्धमान जिनेन्द्र, घातिया कर्मोंके नाशसे प्राप्त हुई वृद्धि मुझे दें ॥१॥ जिनके वचनोंसे सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसे आप तत्त्वार्थ का निर्णय करनेसे सन्मति नामको प्राप्त हुए और देवोंके आगमनसे पूज्य होकर आप अकलङ्क हुए हैं ॥२॥ आपका नाम वीरसेन है, रुद्रके द्वारा आप महावीर कहलाये हैं, ऋद्धिधारी मुनियोंकी सेनाके नायक हैं । गणधरदेव आपके चरण-कमलोंकी पूजा करते हैं, तथा अनेक मुनिराज आपका ध्यान करते हैं ॥३॥हे देव ! लोक और अलोकके देखनेमें आपका ही केवलज्ञानरूपी प्रकाश मुख्य गिना जाता है जिसे आपका केवलज्ञान नहीं देख सका ऐसा क्या कोई फुटकर पदार्थ भी इस संसारमें है ? ॥ ४ ॥ हे नाथ ! आपका रूप ही आपके क्रोधादिकके अभावको सूचित करता है सो ठीक ही है क्योंकि बहुमूल्य मणियोंकी कालिमाके अभावको कौन कहता है ? भावार्थ-जिस प्रकार मणियोंकी निर्मलता स्वयं प्रकट हो जाती है उसी प्रकार श्रापका शान्ति भाव भी स्वयं प्रकट हो रहा है ॥ ५॥ हे प्रभो ! अन्य अनेक कुतीर्थोंका उल्लङ्घनकर आपका तीर्थ अब भी चल रहा है इसलिए स्तुतिके अनन्तर आपका पुराण कहा जाता है॥६॥ यह महापुराण एक महासागरके समान है इसके पार जानेके लिए कुछ कहनेकी इच्छा करनेवाले हम लोगोंको श्रीजिनसेन स्वामीका अनुगामी होना चाहिये ॥ ७॥ यह पुराण रूपी महासागर अगाध और अपार है तथा मेरी बुद्धि थोड़ी और पारसहित है फिर भी मैं इस बुद्धिके द्वारा इस पुराणरूपी महासागरको पार करना चाहता हूँ ।। ८ ।। यद्यपि मेरी बुद्धि छोटी है और यह पुराण बहुत बड़ा है तो भी जिस प्रकार छोटी-सी नावसे समुद्रके पार हो जाते हैं उसी प्रकार मैं भी इस छोटी-सी बुद्धिसे इसके पार हो जाऊँगा॥६॥ सबसे पहले कथा और कथाके कहनेवाले वक्ताका वर्णन किया जाता है क्योंकि यदि ये दोनों ही निर्दोष हों तो उनसे पुराणमें कोई दोष नहीं आता है ॥१०॥ कथा वही कहलाती है कि जिसके सुननेसे हेय और उपादेयका निर्णय हो जाता है। हित चाहनेवाले पुरुषोंके कानोंको कड़वी लगनेवाली अन्य कथाओंसे क्या प्रयोजन है ? ॥ ११ ॥ कथक-कथा कहनेवाला वह कहलाता है जो कि रागादि दोषोंसे रहित हो और अपने दिव्य वचनोंके द्वारा निरपेक्ष होकर भव्य
१ ख० पुस्तकेऽयं श्लोकोऽधिकः वन्दारून् वर्धमानोऽस्तु वर्धमानशिवप्रदः । दितफर्मानेकविधैः परीषहगणैर्यकः ॥ २ प्राप्ताह स.1३ वर्णनं ल०।
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