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चतुःसप्ततितमं प्रर्व
पीडा तिलातसीक्षणां नान्यप्राणिषु केषुचित् । मान्यत्र शिरसश्छेदः प्रवृद्धष्वेव शालिषु ॥ २७ ॥ बन्धो मोक्षश्च राद्धान्ते श्रयते नापराधिषु । विना विमुक्तरागेभ्यो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहः ॥ २८ ॥ जाड्यं जलेषु नान्येषु सूच्यादिवेव तीक्ष्णता । नान्यत्र कुञ्चिकास्वेव कृत्ये नान्यत्र वक्रता ॥ २९ ॥ नाविदग्धाश्च गोपाला न खीबालाच उभीलुकाः। शठा न वामनाचोक्ताश्चण्डालाश्च न दुश्वराः ॥ ३० ॥ नानिक्षुशालिका भूमिर्न क्षमाभृदचन्दनः । नानम्भोज जलस्थानं नैवास्वादुफलं वनम् ॥ ३१ ॥ मध्ये तस्य विनीताख्या हृदयग्राहिणी पुरी । जनानां सा विनीतेव रमणी सत्सुखप्रदा ॥ ३२ ॥ प्रकाशयितुमात्मीय पुरनिर्माणकौशलम् । भक्तिञ्च तीर्थकृत्स्वादौ सा शक्रेणैव निर्मिता ॥ ३३ ॥ मुने(विनयेनैव स्वामिनैव पताकिनी । काञ्चीव मणिना मध्ये सा सालेन म्यभासत ॥ ३४ ॥ भूषणायैव सालोऽस्याः खातिकापरिवेष्टितः । शक्रः कर्ता पतिश्चक्री यदि कौतस्कुतं भयम् ॥ ३५ ॥ वर्तते जिनपूजास्या दिन प्रति गृहे गृहे । सर्वमङ्गलकार्याणां तत्पूर्वत्वाद् गृहशिनाम् ॥ ३६ ॥ विद्याभ्यासाद्विना बाल्यं विना भोगेन यौवनम् । वार्धक्यं न विना धर्माद्विनान्तोऽपि समाधिना ॥३७॥ नावबोधः क्रियाशून्यो न क्रिया फलवजिता । अभुक्त न फलं भोगो नार्थधर्मद्वयच्युतः ॥ ३८ ॥ प्रधानप्रकृतिः प्रायः स्वामित्वेनैव साधिकारी जनेभ्यस्तन्निवासिभ्यो न भूषादिपरिच्छदैः ॥ ३९ ॥ और क्षीणता ये दो शब्द चन्द्रमाके वाचक राजामें ही पाये जाते थे अन्य किसी राजामें नहीं पाये जाते थे। निराहार रहना तपस्वियोंमें ही था अन्यमें नहीं ।। २६ ।। पीड़ा अर्थात् पेला जाना तिल अलसी तथा इखमें ही था अन्य किसी प्राणीमें पीड़ा अथात् कष्ट नहीं था। शिरका काटना बढ़ी हुई धानके पौधों में ही था किसी दूसरेमें नहीं। बन्ध और मोक्षकी चर्चा आगममें ही सुनाई देती थी किसी अपराधीमें नहीं । इन्द्रियोंका निग्रह विरागी लोगोंमें ही था किन्हीं दूसरे लोगोंमें नहीं । जड़ता जलमें ही थी किन्हीं अन्य मनुष्योंमें जड़ता-मूर्खता नहीं थी, तीक्ष्णता सुई आदिमें ही थी वहांके मनुष्योंमें उग्रता नहीं थी, वक्रता तालियोंमें ही थी किसी अन्य कार्यमें कुटिलता-मायाचारिता नहीं थी। वहांके गोपाल भी अचतुर नहीं थे, स्त्रियाँ तथा बालक भी डरपोक नहीं थे, बौने भी धूर्त नहीं थे, चाण्डाल भी दुराचारी नहीं थे। वहां ऐसी कोई भूमि नहीं थी जो कि ईखोंसे सुशोभित नहीं हो, ऐसा कोई पर्वत नहीं था जिसपर चन्दन न हों, ऐसा कोई सरोवर नहीं था जिसमें कमल न हों और ऐसा कोई वन नहीं था जिसमें मीठे फल न हों। २७-३१ ॥
देशके मध्यभागमें हदयको ग्रहण करनेवाली विनीता (अयोध्या) नामकी नगरी थी जो कि विनीत स्त्रीके समान मनुष्योंको उत्तम सुख प्रदान करती थी ।। ३२ ।। वह नगरी अपनी नगर-रचनाकी कुशलता दिखानेके लिए अथवा तीर्थंकरोंमें अपनी भक्ति प्रदर्शित करनेके लिए इन्द्रने ही सबसे पहले बनाई थी। ३३ ।। जिस प्रकार विनयसे मुनिकी बुद्धि सुशोभित होती है, स्वामीसे सेना शोभायमान होती है और मणिसे मेखला सुशोभित होती है, उसी प्रकार मध्यभागमें बने हुए परकोटसे वह नगरी सुशोभित थी।। ३४॥ खाईसे घिरा हुआ इस नगरीका कोट, केवल इसकी शोभाके लिए ही था क्योंकि इसका बनानेवाला इन्द्र था और स्वामी चक्रवर्ती था फिर भला इसे भय किससे हो सकता था ? ।। ३५ ।। वहाँ पर प्रतिदिन घर-घरमें जिनकी पूजा होती थी क्योंकि गृहस्थोंके सब माङ्गलिक कार्य जिन-पूजापूर्वक ही होते थे ॥३६॥ वहाँपर बिना विद्याभ्यासके बालक-अवस्था व्यतीत नहीं होती थी, विना भोगोंके यौवन व्यतीत नहीं होता था, बिना धर्मके बुढ़ापा व्यतीत नहीं होता था और विना समाधिके मरण नहीं होता था ॥ ३७॥ वहाँपर किसीका भी ज्ञान क्रियारहित नहीं था, क्रिया फलरहित नहीं थी, फल बिना उपभोगके नहीं था और भोग अर्थ तथा धर्म दोनोंसे रहित नहीं था ॥३८॥ यदि वहाँ के रहनेवाले लोगोंसे मन्त्री आदि प्रधान प्रकृतिका पृथक्करण होता था तो केवल स्वामित्वसे ही होता था आभूषणादि उप
१ विग्रहः ल०।२ शुण्ठ्यादिष्वेव इति कचित् । सुंठादिष्वेव ल० । ३ भीरुकाः ल । ४ तृतीयचतुर्थ पादौ ल.पुस्तके अटितौ । ५ ख़भासत ल।
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