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महापुराणे उत्तरपुराणम गजः कण्ठीरवेणेव वज्रेणेव महाबलः । भास्करेणान्धकारो वा त्रिपृष्ठेन पराजितः ॥११॥ स विलक्षो हयग्रीवो मायायुद्धेऽपि निजितः । चक्रं सम्प्रेषयामास त्रिपृष्ठमभि निष्ठुरम् ॥ १६२ ॥ तत्तं प्रदक्षिणीकृत्य मच तहक्षिणे भुजे । तस्थौ सोऽपि तदादाय रिपुं प्रत्यक्षिपक्रया ॥ १३ ॥ खण्डद्वयं हयग्रीवग्रीवां सयो व्यधाददः । त्रिखण्डाधिपतित्वेन त्रिपृष्ठश्चार्धचक्रिणम् ॥ १६ ॥ विजयेनात्र लब्धेन विजयेनेव चक्रभृत् । विजया समं गत्वा रथनूपुरभूपतिम् ॥ १६५ ॥ श्रेणिद्वयाधिपत्येन प्रापर्यश्चक्रवर्तिताम् । प्रभोरभुत्फलस्यात्र व्यक्तिः कोपप्रसादयोः ॥ १६६ ॥ राज्यलक्ष्मी चिरं भुक्त्वाप्यतृप्त्या भोगकांक्षया । मृत्वागात्सप्तमी पृथ्वी बहारम्भपरिग्रहः ॥ १६७ ॥ परस्परकृतं दुःखमनुभूय चिरायुषा । स्वधात्रीकृतदुःखञ्च तस्मानिर्गत्य दुस्तरात् ॥ १६८ ॥ द्वीपेऽस्मिन्भारते गङ्गानदीतटसमीपगे। वने सिंहगिरी सिंहो भूत्वाऽसौ बंहितांहसा ॥ १६९ ॥ रत्नप्रभा प्रविश्यैव प्रज्वलद्वसिमाप्तवान् । दुःखमेकाब्धिमेयायुस्ततश्च्युत्वा पुनश्च सः॥ १७॥ द्वीपेऽस्मिन् 'सिन्धुकूटस्य प्रारभागे हिमवद्रेिः । सानावभून्मृगाधीशो ज्वलत्केसरभासुरः ॥११॥ तीक्ष्णष्ट्राकरालाननः कदाचिद्विभीषणः । कञ्चिन्मृगमवष्टभ्य' भक्षयन् स समीक्षितः ॥ १७२ ॥ अनेऽमितगुणेनामा गच्छतातिकृपालुना । अजितजयनामाग्रचारणेन मुनीशिना ॥ १७३ ॥ स मुनिस्तीर्थनाथोक्तमनुस्मृत्यानुकम्पया। अवतीर्य नभोमार्गात्समासाद्य मृगाधिपम् ॥ १७४॥ शिलातले निविश्योच्चैर्धयां वाचमुदाहरत् । उभो भो भव्यमृगाधीश त्वं त्रिपृष्ठभवे पुरा ॥ १७५ ॥ · पराध्यं पञ्चधा प्रोक्त मृदुशय्यातले चिरम् । स्वैरं कान्ताभिरिष्टाभिरभीष्टं सुखमन्वभूः ॥ १७६ ॥ घिरे हुए घोड़ों, रथों तथा हाथियोंसे महाबलवान् हैं ऐसे वे दोनों योद्धा ऋद्ध होकर परस्पर युद्ध करने लगे। १५१-१६०॥ जिस प्रकार सिंह हाथीको भगा देता है, वन महापर्वतको गिरा देता है और सर्य अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार त्रिपृष्ठने अश्वग्रीवको पराजित कर दिया ।। १६१॥ जब अश्वग्रीव मायायुद्धमें भी पराजित हो गया तब उसने लज्जित होकर त्रिपृष्ठके ऊपर कठोर चक्र चला दिया परन्तु वह चक्र प्रदक्षिणा देकर शीघ्र ही उसकी दाहिनी भुजा पर आकर स्थिर हो गया। त्रिपृष्ठने भी उसे लेकर क्रोधवश शत्रुपर चला दिया ॥१६२-१६३ ।। उसने जाते ही ग्रीवाके दो टुकड़े कर दिये। त्रिखण्डका अधिपति होनेसे त्रिपृष्ठको अर्धचक्रवर्तीका पद मिला. ।। १६४ ।। युद्धमें प्राप्त हुई विजयके समान विजय नामके भाईके साथ चक्रवर्ती त्रिपृष्ठ, विजयार्ध पर्वतपर गया और वहाँ उसने रथनूपुर नगरके राजा ज्वलनजटीको दोनों श्रेणियोंका चक्रवर्ती बना दिया सो ठीक ही है क्योंकि स्वामीके क्रोध और प्रसन्न होनेका फल यहाँ ही प्रकट हो जाता ॥ १६५-१६६ ॥ उस त्रिपृष्ठने चिरकाल तक राज्यलक्ष्मीका उपयोग किया परन्तु तृप्त न होनेके कारण उसे भोगोंकी आकांक्षाबनी रही। फलस्वरूप बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहकाधारक होनेसे वह मरकर सातवें नरक गया॥१६७। वह वहाँ परस्पर किये हुए दुःखको तथा पृथिवी सम्बन्धी दुःखको चिरकाल तक भोगता रहा। अन्तमें उस दुस्तर नरकसे निकलकर वह तीव्रपापके कारण इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें गडानदीके तटके समीपवर्ती वनमें सिंहगिरि पर्वतपर सिंह हुआ। वहाँ भी उसने तीव्र पाप किया अतः जिसमें अग्नि जल रही है ऐसी रत्नप्रभा नामकी पृथिवीमें गया। वहाँ एक सागर तक भयंकर दुःख भोगता रहा । तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर इसीजम्बूद्वीपमें सिन्धुकूटकी पूर्व दिशामें हिमवत् पर्वतकी शिखरपर देदीप्यमान बालोंते सुशोभित सिंह हुआ।।१६-१७१॥जिसका मुख पैनी दांदोंसे भयंकर है ऐसा भय उत्पन्न करनेवाला वह सिंह किसीसमय किसी एक हरिणको पकड़कर खारहा था। उसीसमयअतिशय दयाल अजितंजयनामक चारण मुनि, अमितगुण नामक मुनिराजके साथ आकाशमेंजा रहे थे। उन्होंने उस सिंहको देखा, देखते ही वे तीर्थंकरके वचनोंका स्मरण कर दयावश आकाशमार्गसे उतर कर उस सिंहके पास पहुंचे और शिलातलपर बैठकर जोर-जोरसे धर्ममय वचन कहने लगे। उन्होंने कहा कि हे भव्य मृगराज ! तूने पहले त्रिपृष्ठके भवमें पाँचों इन्द्रियोंके श्रेष्ठ विषयोंका अनुभव
१ सिद्धकूटस्य क०, म०, घ० । सिंहकूटस्य ल० । २-मनष्टस्य ल०।३ भो भव्य ल.।
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