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चतुःसप्ततितम पर्व श्रीमानितः खगाधीशो जिनलोकशिखामणिः । स्वानुरक्तप्रजो राजा नगराद्रधनूपुरात् ॥ १४५ ॥ ज्वलनादिजटी ख्यातो नमिवंशाम्बरांशुमान् । पोदनाख्यपुराधीशं प्रजापतिमहानृपम् ॥ १४६ ॥ आदिभहारकोत्पन्नबाहुवल्यन्वयोद्भवम् । प्रणम्य शिरसा स्नेहारकुशल प्रश्नपूर्वकम् ॥ १४ ॥ सप्रश्रय प्रजानाथमित्थं विज्ञापयत्यसौ । वैवाहिकः स सम्बन्धी विधेयो नाधुना मया ॥ १४८ ॥ त्वया वास्त्यावयोरत्र पारम्पर्यसमागतः । न कार्य वंशयोरद्य गुणदोषपरीक्षणम् ॥ १४९ ॥ विशुद्धयोः प्रसिद्धत्वात्प्राक्चन्द्रादित्ययोरिव । पूज्य मनागिनेयस्य त्रिपृष्ठस्य स्वयम्प्रभा ॥ १५० ॥ मत्सुता भामिनीवास्य लक्ष्मीः खण्डत्रयोद्गता । आतनोतु रतिं स्वस्यां स्वमतायसीमिति ॥ १५ ॥ प्रजापतिमहाराजः श्रत्वा तद्वन्धुभाषितम् । मया तेनेष्टमेवेष्टमित्यमात्यमतोषयत् ॥ १५२ ॥ सोऽपि सम्प्राप्तसम्मानदानस्तेन विसर्जितः । सद्यः सम्प्राप्य तत्सर्वं स्वमहीशं न्यवेदयत् ॥ १५३ ॥ ज्वलनादिजटी चाशु सार्ककीर्तिः स्वयम्प्रभाम् । आनीय सर्वसम्पत्त्या त्रिपृष्ठाय समर्पयत् ॥ १५ ॥ यथोक्तविधिना सिंहवाहिनी गरुडादिकाम् । वाहिनीञ्च ददौ सिद्धविद्ये विदितशक्तिके ॥ १५५ ॥ 'चरोपनीततद्वार्ताज्वलनज्वलिताशयः । विद्यात्रितयसम्पविद्याधरधराधिपैः ॥ १५६ ॥ अध्वन्यैरभ्यमित्रीणैरायुधीयैर्भटैर्वृतः । रथावर्ताचलं प्रापदश्वग्रीवो युयुत्सया ॥ १५७ ॥ तदागमनमाकर्ण्य चतुरङ्गबलान्वितः । प्रागेवागत्य तत्रास्थात्त्रिपृष्ठो रिपुनिष्टरः॥ १५८ ॥ कुम्वा तौ युद्धसनद्धावुद्धतौ रुद्धभास्करौ । स्वयं स्वधन्वभिः साधं शरसवातवर्षणैः ॥ १५९ ॥ - अश्वै रथैर्गजेन्द्रेश्च पदातिपरिवारितैः । यथोक्तविहितव्यूहैरयुध्येतां "महाबलौ ॥ १६० ॥
रखा हुआ पत्र निकालकर बाँचा । उसमें लिखा था कि सन्धि विग्रहमें नियुक्त, विद्याधरोंका स्वामी, अपने लोकका शिखामणि, अपनी प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला, महाराज नमिके वंशरूपी आकाशका सूर्य, श्रीमान, प्रसिद्ध राजा ज्वलनजटी रथनूपुर नगरसे, पोदनपुर नगरके स्वामी, भगवान् ऋषभदेवके पुत्र बाहुवलीके वंशमें उत्पन्न हुए महाराज प्रजापतिको शिरसे नमस्कार कर बड़े स्नेहसे कुशल प्रश्न पूछता हुआ बड़ी विनयके साथ इस प्रकार निवेदन करता है कि हमारा और आपका वैवाहिक सम्बन्धआजका नहीं है क्योंकि हम दोनोंकी वंश-परम्परासेवह चला मारहा है। हम दोनों के विशुद्धवंश सूर्य और चन्द्रमाके समान पहलेसे ही अत्यन्त प्रसिद्ध हैं अतः इस कार्य में आज दोनों वंशोंके गुण-दोपकी परीक्षा करना भी आवश्यक नहीं है। हे पूज्य ! मेरी पुत्री स्वयंप्रभा, जो कि तीन खण्डमें उत्पन्न हुई लक्ष्मीके समान है वह मेरे भानेज त्रिपृष्ठकी स्त्री हो और अपने गुणोंके द्वारा अपने आपमें इसकी बड़ी प्रीतिको बढ़ानेवाली हो ॥ १४४-१५१ ।। प्रजापति महाराजने भाईका यह कथन सुन, मन्त्रीको यह कहकर सन्तुष्ट किया, कि जो बात ज्वलनजटीको इष्ट है वह मुझे भी इष्ट है ॥ १५२ ॥ प्रजापति महाराजने बड़े आदर-सत्कारके साथ मन्त्रीको बिदा किया और उसने भी शीघ्र ही जाकर सब समाचार अपने स्वामीसे निवेदन कर दिये ।। १५३ ।। ज्वलनजटी अर्ककीर्तिके साथ शीघ्र ही आया और स्वयंप्रभाको लाकर उसने बड़े वैभवके साथ उसे त्रिपृष्ठके लिए सौंप दी-विवाह दी ।। १५४ ॥ इसके साथ-साथ ज्वलनजटीने त्रिपृष्ठके लिए यथोक्तविधिसे, जिनकी शक्ति प्रसिद्ध है तथा जो सिद्ध हैं ऐसी सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी नामकी दो विद्याएँ भी दीं॥ १५५ ।।
इधर अश्वग्रीवने अपने गुप्तचरोंके द्वारा जब यह बात सुनी तो उसका हृदय क्रोधाग्निसे जलने लगा। वह युद्ध करनेकी इच्छासे, तीन प्रकारकी विद्याओंसे सम्पन्न विद्याधर राजाओं, शत्रुके सन्मुख चढ़ाई करनेवाले मार्ग कुशल एवं अनेक अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसजित योद्धाभोंसे आवृत होकर रथावर्त नामक पर्वतपर आ पहुँचा ।। १५६-१५७ ॥ अश्वग्रीवकी चढ़ाई सुनकर शत्रुओंके लिए अत्यन्त कठोर त्रिपृष्टकुमार भी अपनी चतुरङ्ग सेनाके साथ पहलेसे ही आकर वहाँ आ डटा ॥ १५८ ।। जो युद्धके लिए तैयार हैं, अतिशय उद्धत हैं, स्वयं तथा अपने साथी अन्य धनुषधारियोंके साथ बाणवर्षाकर जिन्होंने सूर्यको ढक लिया है और जो यथोक्त व्यूहकी रचना करनेवाले, पैदल सिपाहियोंसे १ ख्यातनमिवंशा-इति कचित् । २ चारोप-ल० । ३ प्राधै-ल० । ४ महाबलेः ल०, २०, ग० । For Private & Personal Use Only
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