________________
महापुराणे उत्तरपुराणम विदेहे मङ्गलावत्या विषये खेचराचले । पराय॑मुत्तरश्रेण्या नगरं कनकप्रभम् ॥ २२ ॥ पतिः कनकपुडाख्यस्तस्य विद्याधराधिपः । प्रिया कनकमालाभूतयोस्तुवनकोज्ज्वलः ॥ २२२ ॥ साधं कनकवल्यासौ मन्दरं क्रीडितं गतः । समीक्ष्य प्रियमित्राख्यमवधिज्ञानवीक्षणम् ॥ २२३ ॥ भक्कया प्रदक्षिणीकृत्य कृती कृतनमस्कृतिः । अहि धर्मस्य सद्भाव 'पूज्येति परिपृष्टवान् ॥ २२ ॥ धर्मो दयामयो धर्म श्रय धर्मेण नीयसे । मुक्ति धर्मेण कर्माणि छिन्धि धर्माय सन्मतिम् ॥ २२५॥ देहि ४ नापहि धर्मात्त्वं याहि धर्मस्य भृत्यताम् । धर्मे तिष्ठ चिरं धर्म पाहि मामिति "चिन्तय ॥२२६॥ इति धर्म विनिश्चित्य नीत्वाप्यत्वादिपर्ययम् । सन्ततं चिन्तयानन्त्य गन्तासि गणितः क्षणैः ॥ २२७ ॥ इत्यब्रवीदसौ सोऽपि निधाय हृदि तद्वचः । तृषितो वा जलं तस्मात् पीतधर्मरसायनः ॥ २२८ ॥ भोगनिर्वैगयोगेन दूरीकृतपरिग्रहः । चिरं संयम्य सन्न्यस्य कल्पेऽभूत्सप्तमेऽमरः ॥ २२९ ॥ त्रयोदशाब्धिमानायुरात्मसास्कृततत्सुखः । सुखेनास्मात्समागत्य सुसमाहितचेतसा ॥ २३०॥ द्वीपेऽस्मिन्कोसले देशे साकेतनगरेशिनः । वज्रसेनमहीपस्य शीलवत्यामजायत ॥ २३ ॥ हरिषेणः कृताशेषहर्षो नैसगिकैर्गुणैः । वशीकृत्य श्रियं स्वस्य चिरं कुलवधूमिव ॥ २३२ ॥ मालां वा लुप्तसारां तां परित्यज्य ययौ शमम् । 'सुत्रतं "सुश्रुतं श्रित्वा सद्गुरुं श्रुतसागरम् ॥ २३३॥ वर्धमाननतः प्रान्ते महाशुक्रेऽजनिष्ट सः । षोडशाम्भोधिमेयायुराविर्भूतसुखोदयः ॥ २३४ ॥
अस्तमभ्युद्यतार्को वा प्रान्तकालं समाप्तवान् । धातकीखण्डपूर्वाशा विदेहे पूर्वभागगे ॥ २३५ ॥ आयु तक देवोंके सुख भोगे । तदनन्तर वहाँ से चयकर वह, धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसे पूर्वकी ओर जो विदेह क्षेत्र है उसके मङ्गलावती देशके विजयर्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें अत्यन्त श्रेष्ठ कनकप्रभ नगरके राजा कनकपुङ्ख विद्याधर और कनकमाला रानीके कनकोज्ज्वल नामका पुत्र हुआ ।। २२०-२२२॥ किसी एक दिन वह अपनी कनकवती नामक स्त्रीके साथ क्रीड़ा करनेके लिए मन्दरगिरि पर गया था वहाँ उसने प्रियमित्र नामक अवधिज्ञानी मुनिके दर्शन किये ॥ २२३ ॥ उस चतुर विद्याधरने भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा देकर उन मुनिराजको नमस्कार किया और 'हे पूज्य। धर्मका स्वरूप कहिये' इस प्रकार उनसे पूछा ॥ २२४ ॥ उत्तरमें मुनिराज कहने लगे कि धर्म दयामय है, तू धर्मका आश्रय कर, धर्मके द्वारा तू मोक्षके निकट पहुंच रहा है, धर्मके द्वारा कर्मका बन्धन छेद, धर्मके लिए सद्बुद्धि दे, धर्मप्से पीछे नहीं हट, धर्मकी दासता स्वीकृत कर, धर्म में स्थिर रह
और 'हे धर्म मेरी रक्षाकर' सदा इस प्रकारकी चिन्ता कर ।। २२५-२२६ ।। इस प्रकार धर्मका निश्चय कर उसके कर्ता करण आदि भेदोंका निरन्तर चिन्तवन किया कर। ऐसा करनेसे तू कुछ ही समयमें मोक्षको प्राप्त हो जावेगा ।। २२७॥ इस तरह मुनिराजने कहा। मुनिराजके वचन हृदयमें धारण कर और उनसे धर्मरूपी रसायनका पानकर वह ऐसा सन्तुष्ट हुआ जैसा कि प्यासा मनुष्य जल पाकर संतुष्ट होता है ।। २२८ ।। उसने उसी समय भोगोंसे विरक्त होकर समस्त परिग्रहका त्याग कर दिया और चिर काल तक संयम धारणकर अन्तमें सन्यास मरण किया जिसके प्रभावसे वह सातवें स्वर्गमें देव हुआ ।। २२६ ॥ वहाँ तेरह सागरकी आयु प्रमाण उसने वहाँ के सुख भोगे और सुखसे काल व्यतीतकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़े। वहाँ से च्युत होकर वह इसी जम्बूद्वीपके कोसल देश सम्बन्धी साकेत नगरके स्वामी राजा वनसेनकी शीलवती रानीसे अपने स्वाभाविक गुणोंके द्वारा सबको हर्षित करने वाला हरिषेण नामका पुत्र हुआ। उसने कुलवधूके समान राज्यलक्ष्मी अपने वश कर ली ।। २३०-२३२ ।। अन्तमें उसने सारहीन मालाके समान यह समस्त लक्ष्मी छोड़ दी और उत्तम व्रत तथा उत्तम शास्त्र-ज्ञानसे सुशोभित श्रीश्रतसागर नामके सद्गुरुके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ।। २३३ ।। जिसके व्रत निरन्तर बढ़ रहे हैं ऐसा हरिषेण आयुका अन्त होनेपर महाशुक्र स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ। वहाँ वह सोलह सागरकी आयु प्रमाण उत्तम सुख भोगता रहा ।। २३४॥ जिस प्रकार उदित हुश्रा सूर्य अस्त हो जाता है उसी प्रकार वह देव भी अन्तकालको
१ खचराचले ल०। २ ममेति ल.। ३ हन्ता ल०। ४ मावेहि ल । ५ चार्थय इति कचित् । ६ सवतं । ७ सश्रुतं इति क्वचित् । ८ पूर्वसागरे ल०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org