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'तुःसप्ततितम पर्व
३५ नवप्रसूतसक्रद्धगोधेनुप्रतिपातनात् । प्रस्खलन्तं समीक्ष्यैनं मुनि कोपपरायणः ॥ ११५॥ तवाद्य तच्छिलास्तम्भभङ्गादृष्टः पराक्रमः । क यात इति दुश्चिराः परिहासं व्यधादसौ ॥११॥ मुनिश्च तद्वचश्चेतस्यवधार्य प्रकोपवान् । परिहासफलं प्राप्स्यसीति स्वान्तर्गतं वदन् ॥ ११॥ सनिदानोऽभवत्प्रान्ते कृतसन्न्यासनक्रियः । स्वयं विशाखभतिश्च महाशुक्रमुपाश्रितौ ॥ ११८ ॥ तत्र पोडशवाराशिमानमेयायुषी चिरम् । भोगान्भुक्त्वा ततश्च्युत्वा द्वीपेऽस्मिन्नेव भारते ॥ १२ ॥ सुरम्यविषये रम्ये पोदनाख्यपुरे नृपः । प्रजापतिमहाराजोऽजनि देवी जयावती ॥१२०॥ तस्यासीदनयोः सूनुः पितृव्यो विश्वनन्दिनः । विजयाख्यस्ततोऽस्यैव विश्वनन्यप्यनन्तरम् ॥ १२१ ।। मृगावत्यामभत्पुनखिपृष्ठो भाविचक्रभृत् । त्रिखण्डाधिपतित्वस्य सपूर्वगणनां गतः ॥ १२२॥ उगमेनैव निधूंतरिपुचक्रोऽयमक्रमात् । अर्कस्येव प्रतापोऽस्य व्याप्य विश्वमनुस्थितः ॥ १२३ ॥ अनन्यगोचरा लक्ष्मीरसङ्खयेयसमाः स्वयम् । इममेव प्रतीक्ष्यास्त गाढौत्सुक्यार्धचक्रिणम् ॥ १२ ॥ लक्ष्मीलाग्छनमेवास्य चक्रं विक्रमसाधितम् । मागधाद्यामरारक्ष्यं ससमुद्र महीतलम् ॥ १२५ ॥ सिंहशौर्योऽयमित्येषोऽशेमुषीरभिष्टुतः । किं सिंह इव 'निर्धीको नमितामरमस्तकः ॥ १२६॥ जित्वा ज्योत्स्ना मितक्षेत्री वृद्धिहानिमती चिरम् । कीतिरस्याखिलं व्याप्य ज्ञातिर्वा वेधसः स्थिता ॥१२७॥ उदक्छ्रेण्यां खगाधीशो मयूरप्रीवनामभाक् । नीलाअना प्रिया तस्याभूयोरलकापुरे ॥ १२८॥ विशाखनन्दः संसारे चिरं भ्रान्त्वातिदुःखितः । अश्वनीवाभिधः सूनुरजनिष्टापचारवान् ॥ १२९॥
संसर्गसे जिसका राज्य भ्रष्ट हो गया है ऐसा विशाखनन्द भी उस समय किसी राजाका दूत बनकर उसी मथुरा नगरीमें आया हुआ था। वहां एक वेश्याके मकानकी छत्र पर बैठा था । दैव योगसे वहीं हालकी प्रसूना एक गायने क्रुद्ध होकर विश्वनन्दी मुनिको धक्का देकर गिरा दिया उन्हें गिरता देख, क्रोध करता हुआ विशाखनन्द कहने लगा कि 'तुम्हारा जो पराक्रम पत्थरका खम्भा तोड़ते समय देखा गया था वह आज कहाँ गया' ? इस प्रकार उसने खोटे परिणामोंसे उन मुनिकी हँसी की।॥ ११२-११६॥ मुनि भी उसके वचन चित्तमें धारणकर कुछ कुपित हुए और मन ही मन कहने लगे कि इस हँसीका फल तू अवश्य ही पावेगा ।। १७ । अन्तमें निदान सहित संन्यास धारण कर वे महाशुक्र स्वर्गमें देव हुए और विशाखभूतिका जीव भी वहीं देव हुआ ॥११७-५१८।। वहाँ उन दोनोंकी आयु सोलह.सागर प्रमाण थी। चिर काल तक वहाँके सुख भोग कर दोनों ही वहांसे च्युत हुए। उनमेंसे विश्वनन्दीके काका विशाखभूतिका जीव सुरम्य देशके पोदनपुर नगरमें प्रजापति महाराजकी जयावती रानीसे विजय नामका पुत्र हुआ और उसके बाद ही विश्वनन्दीका जीव भी इन्हीं प्रजापति महाराजकी दूसरी रानी मृगावतीके त्रिपृष्ठ नामका पुत्र हुआ । यह होनहार अर्ध चक्रवर्ती था ॥ ११६-१२२ ।। उत्पन्न होते ही एक साथ समस्त शत्रुओंको नष्ट करनेवाला इसका प्रताप, सूर्यके प्रतापके समान समस्त संसारमें व्याप्त होकर भर गया था ॥ १२३ ॥ अर्ध चक्रवर्तियोंमें गाढ़ उत्सुकता रखनेवाली तथा जो दूसरी जगह नहीं रह सके ऐसी लक्ष्मी असंख्यात वर्षसे स्वयं इस त्रिपृष्ठकी प्रतीक्षा कर रही थी ।। १२४ ।। पराक्रमके द्वारा सिद्ध किया हुआ उसका चक्ररत्न क्या था मानो लक्ष्मीका चिह्न ही था और मगधादि जिसकी रच हैं ऐसा समुद्र पर्यन्तका समस्त महीतल उसके आधीन था ॥१२५।। यह त्रिपृष्ठ 'सिंहके समान शूर वीर है। इस प्रकार जो लोग इसकी स्तुति करते थे वे मेरी समझसे बुद्धिहीन ही थे क्योंकि देवोंके भी मस्तकको नम्रीभूत करनेवाला वह त्रिपृष्ठ क्या सिंहके समान निर्बुद्धि भी था ?॥१२६।। उसकी कान्तिने परिमित क्षेत्रमें रहनेवाली और हानि वृद्धि सहित चन्द्रमाकी चाँदनी भी जीत ली थी तथा वह ब्रह्माकी जातिके समान समस्त संसारमें व्याप्त होकर चिरकालके लिए स्थित हो गई थी॥१२॥
इधर विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीके अलकापुर नगरमें मयूरग्रीव नामका विद्याधरोंका राजा रहता था। उसकी रानीका नाम नीलाञ्जना था। विशाखनन्दका जीव चिरकाल तक संसारमें
१-मित्येव शेपुषी-ब। २ निर्भीकन।
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