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चतुःसप्ततितम पर्व परिवाजकदीक्षायामासक्ति पुनरादधत् । सप्ताम्ध्युपमितायुष्को माहेन्द्र समभून्मरुत् ॥ ८५ ।। ततोऽवतीर्य देशेऽस्मिन् मगधाड्ये पुरोत्तमे । जातो राजगृहे विश्वभूतिनाममहीपतेः ॥८६॥ जैन्याश्च तनयो विश्वनन्दी विख्यातपौरुषः। विश्वभूतिमहीभर्तुरनुजातो महोदयः ॥ ८७ ॥ विशाखभूतिरेतस्य लक्ष्मणायामभूद्विधी:' । पुत्रो विशाखनन्दाख्यस्ते सर्वे सुखमास्थिता ॥ ८८ ॥ अन्येद्यः शरदभ्रस्य विभ्रशं वीक्ष्य शुभ्रधीः । निविण्णो विश्वभूत्याख्यः स्वराज्यमनुजन्मनि ॥ १ ॥ विधाय यौवराज्यश्च स्वसूनौ महदप्रणीः । सात्त्विकैस्त्रिशतैः साईराजभिर्जातरूपताम् ॥ १०॥ श्रीधराख्यगुरोः पार्श्वे समादाय समत्वभाक् । बाह्यमाभ्यन्तरञ्चोप्रमकरोत्स तपश्विरम् ॥ ११ ॥ अथान्यदा कुमारोऽसौ विश्वनन्दी मनोहरे । निजोद्याने समं स्वाभिर्देवीभिः क्रीडया स्थितः ॥ १२ ॥ विशाखनन्दस्तं दृष्टा तदुद्यानं मनोहरम् । स्वीकत मतिमादाय गत्वा स्वपितृसन्निधिम् ॥ १३ ॥ मह्यं मनोहरोद्यानं दीयतां भवतान्यथा । कुर्या देशपरित्यागमहमित्यभ्यधादसौ ॥ १४ ॥ सत्सु सत्स्वपि भोगेषु विरुद्धविषयप्रियः । भवेद्भाविभवे भूयो भविष्यदुःखभारत् ॥ ९५ ॥ श्रुत्वा तद्वचनं चिचे निधाय सोहनिर्भरः। "कियत्तचे ददामीति सन्तोष्य तनुज निजम् ॥ ९६ ॥ विश्वनन्दिनमाहूय राज्यभारस्त्वयाधुना । गृह्यतामहमाक्रम्य प्रत्यन्तप्रतिभूभृतः ॥ १७ ॥ कृत्वा तजनितक्षोभप्रशातिं गणितैदिनैः । प्रत्येष्यामीति सोऽवोचच्छृत्वा तत्प्रत्युवाच तम् ॥ १८ ॥ पूज्यपाद स्वयात्रैव निश्चिन्तमुपविश्यताम् । गत्वाहमेव तं प्रैर्ष करोमीति सुतोत्तमः ॥ ९९ ॥
था अतः उसका मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, तप, शान्ति, समाधि और तत्त्वावलोकन-सभी कुछ मरीचिके समान निष्फल था ।।८४ ॥ उसने फिर भी परिव्राजक मतकी दीक्षामें आसक्ति धारण की और मरकर माहेन्द्र स्वर्गमें सात सागरकी आयुवाला देव हुआ ॥५॥ वहांसे च्युत होकर वह इसी मगध देशके राजगृह नामक उत्तम नगरमें विश्वभूति राजाकी जैनी नामकी स्त्रीसे प्रसिद्ध पराक्रमका धारी विश्वनन्दी नामका पुत्र हुअा। इसी राजा विश्वभूतिका विशाखभूति नामका एक छोटा भाई था जो कि बहुत ही वैभवशाली था। उसकी लक्ष्मणा नामकी स्त्रीसे विशाखनन्द नामका मूर्ख पुत्र उत्पन्न हुआ था। ये सब लोग सुखसे निवास करते थे ॥८६-८८ ॥
किसी दूसरे दिन शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाला राजा विश्वभूति, शरद्ऋतुके मेघका नाश देखकर विरक्त हो गया। महापुरुषोंमें आगे रहनेवाले उस राजाने अपना राज्य तो छोटे भाईके लिए दिया और युवराज पद अपने पुत्र के लिए प्रदान किया। तदनन्तर उसने सात्त्विक वृत्तिको धारण करनेवाले तीन सौ राजाओंके साथ श्रीधर नामक गुरुके समीप दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली
और समता भावसे युक्त हो चिरकाल तक बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारके कठिन तप किये।।८६-६१॥
तदनन्तर किसी दिन विश्वनन्दी कुमार अपने मनोहर नामके उद्यानमें अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर रहा था। उसे देख, विशाखनन्द उस मनोहर नामक उद्यानको अपने आधीन करनेकी इच्छासे पिताके पास जाकर कहने लगा कि मनोहर नामका उद्यान मेरे लिए दिया जाय अन्यथा मैं देश परित्याग कर दूंगा-आपका राज्य छोड़कर अन्यत्र चला जाऊंगा। आचार्य कहते हैं कि जो उत्तम भोगोंके रहते हुए भी विरुद्ध विषयोंमें प्रेम करता है वह आगामीभवमें होने वाले दुःखोंका भार ही धारण करता है॥६२-६५॥ पुत्रके वचन सुनकर तथा हृदयमें धारण स्नेहसे भरे हुए पिताने कहा कि 'वह वन कितनी-सी वस्तु है, मैं तुझे अभी देता हूँ। इस प्रकार अपने पुत्रको सन्तुष्टकर उसने विश्वनन्दीको बुलाया और कहा कि 'इस समय यह राज्यका भार तुम ग्रहण करो, मैं समीपवर्ती विरुद्ध राजाओंपर आक्रमणकर उनके द्वारा किये हुए क्षोभको शान्तकर कुछ ही दिनोंमें वापिस आ जाऊंगा'। राजाके वचन सुनकर श्रेष्ठपुत्र विश्वनन्दीने उत्तर दिया कि 'हे पूज्यपाद ! आप यहीं निश्चिन्त होकर रहिये, मैं ही जाकर उन राजाओंको दास
१ विगता धीर्यस्य सः । २ कियत् ते प्रददामोति ल० ।
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