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महापुराणे उत्तरपुराणम् सुरास्तत्र समागत्य स्वर्गायातैनरोत्तमैः। स्वर्गसम्भूतसौहादाद रमन्ते सन्ततं मुदा ॥ ४०॥ सुराः केऽत्र नराः के वा सर्वे रूपादिभिः समाः । इत्यामताः खगाधीशाः मोमुह्यन्ते विवेचने ॥४१॥ तत्र पण्यस्त्रियो वीक्ष्य बाढ सुरकुमारकाः। विस्मयन्ते न रज्यन्ते ताभिर्जातिविशेषतः॥ ४२ ॥ करणानामभीष्टा' ये विषयास्तत्र ते ततः । न नाकेऽपि यतस्तत्र 'नाकिपूज्यसमुद्भवः ॥ ४३ ॥ अकृत्रिमाणि निर्जेतुं विमानानि स्वकौशलात् । सुरैः कृतगृहाण्यत्र चेत्कान्या तेषु वर्णना ॥ ४४॥ बभूवास्याः पतिः पंक्तेः स्वर्गस्येवामरेश्वरः । भरताख्यः पुरोस्सूनुरिक्ष्वाकुकुलवर्धनः ॥ ४५ ॥ अकम्पनाद्या भूपाला नमिमुख्याश्च खेचराः । मागधाद्याश्च देवेशास्यक्तमानाः समुस्सुकाः ॥ ४६ ॥ यस्याज्ञां मालतीमालामिव स्वानम्रमौलयः। भूषाधिकेयमस्माकमिति सन्धारयन्ति ते ॥ ४७ ॥ सत्कर्मभावितैर्भावैः क्षायोपशमिकैश्च सः। भव्यभावविशेषाच श्रेष्ठकाष्ठामधिष्ठितः ॥ ४० ॥ आदितीर्थकृतो ज्येष्ठपुत्रो राजसु षोडशः । ज्यायांश्चक्री मुहूर्तेन मुक्तोऽयं कैस्तुलां व्रजेत् ॥ ४९ ॥ तस्यानन्तमतिर्देवी प्रख्यातिरिव देहिनी। विमुच्य कमलावासं रेजे४ श्रीरिव चागता ॥ ५० ॥ प्रज्ञाविक्रमयोर्लक्ष्मीविशेषो वा पुरूरवाः । मरुभूतस्तयोरासीन्मरीचिः सूनुरग्रणीः ॥ ५१ ॥ स्वपितामहसन्स्यागे स्वयञ्च गुरुभक्तितः । राजभिः सह कच्छाद्यैः परित्यक्तपरिग्रहः ॥ ५२ ॥
चिरं सोढ्वा तपालेशं क्षुच्छीतादिपरीषहान् । दीर्घसंसारवासित्वात्पश्चात्सोदुमशक्नुवन् ॥ ५३ ॥ करणोंसे नहीं होता था। ३६ ।। वहाँ के उत्तम मनुष्य स्वर्गसे आकर उत्पन्न होते थे इसलिए स्वर्गमें हुई मित्रताके कारण बहुससे देव स्वर्गसे आकर बड़ी प्रसन्नतासे उनके साथ क्रीड़ा करते थे ।।४०॥ इनमें देव कौन हैं ? और मनुष्य कौन हैं ? क्योंकि रूप आदिसे सभी समान हैं इस प्रकार आये हुए विद्याधरोंके राजा उनको अलग-अलग पहिचानने में मोहित हो जाते थे ॥४१ वेश्याओंको देखकर देवकुमार बहुत ही आश्चर्य करते थे परन्तु जाति भिन्न होनेके कारण उनके साथ क्रीड़ा नहीं करते थे ।। ४२ ।। इन्द्रियोंको अच्छे लगनेवाले जो विषय वहाँ थे वे विषय चूंकि स्वर्गमें भी नहीं थे इसलिए देवताओं के द्वारा पूज्य तीर्थंकर भगवान्का जन्म वहीं होता था ॥४३ ।। देवोंने अपने कौशलसे जो घर वहां बनाये थे वे अकृत्रिम विमानोंको जीतनेके लिए ही बनाये थे, इससे बढ़कर उनका और क्या वर्णन हो सकता है ? ॥४४॥ जिस प्रकार स्वर्गकी पंक्तिका स्वामी इन्द्र होता है उसी प्रकार उस नगरीका स्वामी भरत था जो कि इक्ष्वाकुवंशको बढ़ानेवाला था और भगवान् वृषभदेवका पुत्र था ॥ ४५ ॥ अकम्पन आदि राजा, नमि आदि विद्याधर और मागध आदि देव अपना अभिमान छोड़कर और उत्कण्ठित होकर अपना मस्तक झुकाते हुए मालतीकी मालाके समान जिसकी आज्ञाको 'यह हमारा सबसे अधिक आभूषण है। यह विचारकर धारण करते थे॥४६-४७॥ अपने सत्कर्मोकी भावनासे तथा कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले मावोंसे और भव्यत्व भावकी विशेषतासे वह श्रेष्ठ पुरुषोंकी अन्तिम सीमाको प्राप्त था अर्थात् सबसे अधिक श्रेष्ठ माना जाता था ॥४८॥ वह भरत भगवान् आदिनाथका जेष्ठ पुत्र था, सोलहवाँ मनु था, प्रथम चक्रवर्ती था और एक मुहूर्तमें ही मुक्त हो गया था ( केवल ज्ञानी हो गया था) इसलिए वह किनके साथ सादृश्यको प्राप्त हो सकता था ? अर्थात् किसीके साथ नहीं, वह सर्वथा अनुपम था॥४६ ॥ उसकी अनन्तमति नामकी वह देवी थी जो कि ऐसी सुशोभित होती थी मानो शरीरधारिणी कीर्ति हो अथवा कमल रूपी निवासस्थानको छोड़कर आई हुई मानो लक्ष्मी ही हो ॥ ५० ॥ जिसप्रकार बुद्धि और पराक्रमसे विशेष लक्ष्मी उत्पन्न होती है उसी प्रकार उन दोनोंके पुरूरवा भीलका जीव देव, मरीचि नामका ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ५१ ॥ अपने बाबा भगवान् वृषभदेवकी दीक्षाके समय स्वयं ही गुरुभक्तिसे प्रेरित होकर मरीचिने कच्छ आदि राजाओंके साथ सब परिग्रहका त्यागकर दीक्षा धारण कर ली थी। उसने बहुत समय तक तो तपश्चरणका क्लेश सहा और क्षुधा शीत
१ अमीष्टा ल० । २ नाकि पूजा ल० । ३ षोडश ल०। ४ विरेजे श्रीरिवागता इत्यपि कचित् ।
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