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महापुराणे उत्तरपुराणम्
नयन्स चतुरो मासान् छान्नस्थ्येन विशुद्धिभाक् । दीक्षाग्रहवने देवदारुभूरिमहीरुहः ॥ १३४ ॥ अधस्तादष्णुमाहारत्यागादाराविशुद्धिकः । प्रत्यासन्नभवप्रान्तो योगं सप्तदिनावधिम् ॥ १३५ ॥ गृहीत्वा सवसारोsस्थाद् धर्मंध्यानं प्रवर्तयन् । शम्बरोऽत्राम्बरे गच्छागच्छत्स्वं विमानकम् ।। १३६ ।। लोकमानो विभङ्गेन 'स्पष्टप्राग्वैरबन्धनः । शेषात्कृतमहाघोषो महावृष्टिमपातयत् ॥ १३७ ॥ व्यधातत्रैव सप्ताहान्यन्यांश्च विविधान्विधीः । महोपसर्गान् शैलोपनिपातान्तानिवान्तकः ॥ १३८ ॥ 'तं ज्ञात्वाऽवधिबोधेन धरणीशो विनिर्गतः । धरण्याः प्रस्फुरद्रत्नफणामण्डपमण्डितः ॥ १३९ ॥ २ भद्रं तमस्थादावृत्य तत्पत्नी च फणाततेः । उपर्युचैः समुद्धृत्य स्थिता वज्रातपच्छिदम् ॥ १४० ॥ अमू क्रूरौ प्रकृत्यैव नागौ सस्मरतुः कृतम् । नोपकारं परे तस्माद्विस्मरन्त्यार्द्रचेतसः ॥ १४१ ॥ ततो भगवतो ध्यानमाहात्म्यान्मोहसंक्षये । विनाशमगमद्विश्वो विकारः कमठद्विषः ॥ १४२ ॥ द्वितीयशुक्रुध्यानेन मुनिनिर्जित्य कर्मणाम् । त्रितयं चैत्रमासस्य काले पक्षे दिनादिमे ॥ १४३ ॥ भागे विशाखनक्षत्रे चतुर्दश्यां महोदयः । सम्प्रापत्केवलज्ञानं लोकालोकावभासनम् ॥ १४४ ॥ तदा केवल पूजाञ्च सुरेन्द्रा निरवर्तयन् । शम्बरोऽप्यात्तकालादिलब्धिः शममुपागमत् ॥ १४५ ॥ प्रापत्सम्यक्त्वशुद्धिञ्च दृष्ट्वा तद्वनवासिनः । तापसास्त्यक्तमिथ्यात्वाः शतानां सप्त संयमम् ॥ १४६ ॥ गृहीत्वा शुद्धसम्यक्त्वाः पार्श्वनाथं कृतादराः । सर्वे प्रदक्षिणीकृत्य प्राणेमुः पादयोर्द्वयोः ॥ १४७ ॥
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योग्य उत्तम फल प्राप्त किया || १३३ || इस प्रकार अत्यन्त विशुद्धिको धारण करनेवाले भगवान्ने छद्मस्थ अवस्थाके चार माह व्यतीत किये । तदनन्तर जिस वनमें दीक्षा ली थी उसी वनमें जाकर वे देवदारु नामक एक बड़े वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहां तेलाका नियम लेनेसे उनकी विशुद्धता बढ़ रही थी, उनके संसारका अन्त निकट आ चुका था और उनकी शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी, इस प्रकार वे सात दिनका योग लेकर धर्मध्यानको बढ़ाते हुए विराजमान थे। इसी समय कमठका जीव शम्बर नामका असुर आकाशमार्गसे जा रहा था कि अकस्मात् उसका विमान रुक गया । जब उसने विभङ्गावधि ज्ञानसे इसका कारण देखा तो उसे अपने पूर्वभवका सव वैर-बन्धन स्पष्ट दिखने लगा । फिर क्या था, क्रोधवश उसने महा गर्जना की और महावृष्टि करना शुरू कर दिया । इस प्रकार यमराज के समान अतिशय दुष्ट उस दुर्बुद्धिने सात दिन तक लगातार भिन्न-भिन्न प्रकार के महा उपसर्ग किये। यहाँ तक कि छोटे-मोटे पहाड़ तक लाकर उनके समीप गिराये ।। १३४ -१३८ ।। अवधिज्ञानसे यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी पत्नीके साथ पृथिवीतलसे बाहर निकला उस समय वह धरणेन्द्र, जिसपर रत्न चमक रहे हैं ऐसे फणारूपी मण्डपसे सुशोभित था । धरणेन्द्र भगवान को फणाओं के समूहसे आवृतकर खड़ा हो गया और उसकी पत्नी मुनिराज पार्श्वनाथ के ऊपर बहुत ऊँचा वज्रमय छत्र तानकर स्थित हो गयी । आचार्य कहते हैं कि देखो, स्वभाव से ही क्रूर रहने वाले सर्पसर्पिणीने अपने ऊपर किया उपकार याद रखा सो ठीक ही है, क्योंकि दयालु पुरुष अपने ऊपर किये उपकार को कभी नहीं भूलते ।। १३६-१४१ ॥
तदनन्तर भगवान् के ध्यानके प्रभावसे उनका मोहनीय कर्म क्षीण होगया इस लिए वैरी कमठका सब उपसर्ग दूर हो गया ।। १४२ ।। मुनिराज पार्श्वनाथने द्वितीय शुक्लध्यानके द्वारा अवशिष्ट तीन घातिया कर्मोंको और भी जीत लिया जिससे उन्हें चैत्रकृष्ण त्रयोदशी के दिन प्रातःकालके समय विशाखा नक्षत्र में लोक- श्रलोकको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त हो गया और इस कारण उनका अभ्युदय बहुत भारी हो गया ।। १४३ - १४४ ॥ उसी समय इन्द्रोंने केवलज्ञानकी पूजा की। शम्बर नामका ज्यौतिषीदेव भी काललब्धि पाकर शान्त हो गया और उसने सम्यग्दर्शन सम्बन्धी विशुद्धता प्राप्त कर ली। यह देख, उस वनमें रहनेवाले सात सौ तपस्वियोंने मिध्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर के साथ प्रदक्षिणा देकर भगवान्
१ तद् ज्ञात्वा ल० । २ भदन्तभस्थादानृत्य स्व० । भट्टारमस्था — इति कचित् । भर्तारमस्थादावृत्य ल० । ३ कालपक्षे ल० ।
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