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महापुराणे उत्तरपुराणम् इमे द्वे दीक्षिते केन हेतुनेत्यन्वयुत ताम् । अथ सायब्रवीदेवं शान्तिः कल्याणनामिके ॥ २५ ॥ शृण्वेते जन्मनि प्राचि सौधर्माधिपतेः प्रिये । विमला सुप्रभा चेति देव्यौ सौधर्मसंयुते ॥ २५१ ॥ गत्वा नन्दीश्वरद्वीपे जिनगेहार्चनाविधेः । तत्र संविग्नचित्तत्वात्सम्प्राप्यास्मान्मनुष्यताम् ॥ २५२ ॥ आवां तपः करिष्याव इत्यन्योन्यं व्यवस्थितिम् । अकुर्वतां ततश्च्युत्वा साकेतनगरेशिनः ॥ २५३ ॥ श्रीषेणाख्यमहीशस्य श्रीकान्तायाश्च ते सुते । हरिश्रीपूर्वसेनाख्ये सम्भूय प्राप्तयौवने ॥ २५४ ॥ स्वयंवरविवाहोरुमण्डपाभ्यन्तरे स्थिते । निजपूर्वभवं स्मृत्वा संस्थाञ्च प्राक्तनी कृताम् ॥ २५५ ॥ विसयं बन्धुवर्गेण समं नुपकुमारकान् । इते दीक्षामिति क्षान्तिवचनाकर्णनेन सा ॥ २५६ ॥ सुकुमारी च निविण्णा सम्मता निजबान्धवैः। तत्समीपेऽगमद्दीक्षामन्येद्यर्वनमागताम् ॥ २५७ ॥ वेश्यां वसन्तसेनाख्यामावृत्य बहुभिविटैः । सम्प्रार्थ्यमानामालोक्य ममाप्येवं भवेदिति ॥ २५८ ॥ निदानमकरोज्जीवितान्ते प्राक्तनजन्मनः । सोमभूतेरभूद्देवी प्रान्तकल्पनिवासिनः ॥ २५९ ॥ उत्कृष्टजीवितं तत्र गमयित्वा त्रयोऽपि ते । सोदर्याः प्रच्युता यूयं जाता रत्नत्रयोपमाः ॥ २६०॥ धर्मजो भीमसेनश्च पार्थश्चाख्यातपौरुषः । धनमित्रश्रियो चास्मिनभूतां स्तुतविक्रमौ ।। २६१ ॥ नकुलः सहदेवश्च चन्द्रादित्यसमप्रभौ । सुकुमारी च काम्पिल्पपुरे पदभूपतेः ॥ २६२ ॥ सुता दृढरथायाश्च द्रौपद्याख्याजनिष्ट सा । इति नेमीश्वरप्रोक्तमाकर्ण्य बहुभिः समम् ॥ २६३ ॥ पाण्डवाः संयम प्रापन् सतामेषा हि बन्धुता । कुन्ती सुभद्रा द्रौपद्यश्च दीक्षां ताः परां ययुः ॥२६॥
निकटे राजिमस्याख्यगणिन्या गुणभूषणाः । तास्तिस्रः षोडशे कल्पे भूत्वा तस्मात्परिच्युताः ॥ २६५ ॥ घर अन्य अनेक आर्यिकाओंके साथ सुव्रता और क्षान्ति नामकी आर्यिकाएँ आईं उसने उन्हें वन्दना कर प्रधान आर्यिकासे पूछा कि इन दोनों आर्यिकाओंने किस कारण दीक्षा ली है ? यह बात आप मुझसे कहिए। सुकुमारीका प्रश्न सुनकर क्षान्ति नामकी आर्यिका कहने लगी कि हे शुभ नामवाली ! सुन, ये दोनों ही पूर्वजन्ममें सौधर्म स्वर्गके इन्द्रोंकी विमला और सुप्रभा नामकी प्रिय देवियां थीं। किसी एक दिन ये दोनों ही सौधर्म इन्द्रके साथ जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करनेके लिए नन्दीश्वर द्वीपमें गई थीं। वहां इनका चित्त विरक्त हुआ इसलिए इन दोनोंने परस्पर ऐसा विचार स्थिर किया कि हम दोनों इस पर्यायके बाद मनुष्य पर्याय पाकर तप करेंगी। आयके अन्तमें वहांसे च्युत होकर ये दोनों, साकेत नगरके स्वामी श्रीषेण राजाकी श्रीकान्ता रानीसे हरिषेणा और श्रीषेणानामकी पुत्रियां हुई हैं। यौवन अवस्था प्राप्तकर ये दोनों विवाहके लिए स्वयम्बर-मंडपके भीतर खड़ी थीं कि इतने में ही इन्हें अपने पूर्वभव तथा पूर्वभवमें की हुई प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया । उसी समय इन्होंने समस्त बन्धुवर्ग तथा राजकुमारोंका त्यागकर दीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार क्षान्ति आर्यिकाके वचन सुनकर सुकुमारी बहुत विरक्त हुई और अपने कुटुम्बीजनोंकी संमति लेकर उसने उन्हीं आर्यिकाके पास दीक्षा धारण कर ली। किसी दूसरे दिन वनमें वसन्तसेना नामकी वेश्या आई थी, उसे बहुतसे व्यभिचारी मनुष्य घेरकर उससे प्रार्थना कर रहे थे। यह देखकर सुकुमारीने निदान किया कि मुझे भी ऐसा ही सौभाग्य प्राप्त हो। आयुके अन्तमें मरकर वह, पूर्वजन्ममें जो सोमभूति नामका ब्राह्मण था और तपश्चरणके प्रभावसे अच्युत स्वर्गमें देव हुआ था उसकी देवी हुई ॥ २४६-२५६ ॥ वहांकी उत्कृष्ष्ट आयु बिताकर उन तीनों भाइयोंके जीव वहांसे च्युत होकर रत्नत्रयके समान तुम प्रसिद्ध पुरुषार्थके धारक युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन हुए हो। तथा धनश्री और मित्रश्रीके जीव प्रशंसनीय पराक्रमके धारक नकुल एवं सहदेव हुए हैं। इनकी कान्ति चन्द्रमा और सूर्यके समान है । सुकुमारीका जीव काम्पिल्य नगरमें वहांके राजा द्रपद और रानी दृढरथाके द्रौपदी नामकी पुत्री हुई है । इस प्रकार नेमिनाथ भगवान्के द्वारा कहे हुए अपने भवान्तर सुनकर पाण्डवोंने अनेक लोगोंके साथ संयम धारण कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंका बन्धुपना यही है। गुणरूपी आभूषणको धारण करनेवाली कुन्ती सुभद्रा तथा द्रौपदीने भी राजिमति गणिनीके पास उत्कृष्ट दीक्षा धारण कर ली। अन्तमें तीनोंके जीव सोलहवें स्वर्गमें उत्पन्न हुए और वहांसे च्युत होकर निःसन्देह समस्त कर्ममलसे रहित हो मोक्ष
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